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श्रीमवचनसार भाषाटीका
स्वभावापेक्षा एक हैं. तथापि सपने १ ज्ञानदर्शन सुखवीर्य मादिकी भिन्नताकी तथा अपने २ आनंदके अनुभवकी अपेक्षा सब सिद्ध भिन्न २ हैं। इसी तरह सर्व अरहंत, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु अपनी ९ भिन्न आत्माकी सत्ताको अपेक्षा भिन्न २ हैंसमुदाय रूप युगपत् नमस्कार करने में पदवी अपेक्षा नमस्कार है तथा अलग २ नमस्कार करनेमें व्यक्तिकी अपेक्षा नमस्कार है । फिर आचार्यने पांच विदेsोंके भीतर विद्यमान सर्व ही अरहंतोंको भी एक साथ व अलग २ नमन करके अपनी गाढ भक्तिका परिचय दिया है। वर्तमान में जंबूद्वीपमें चार, धातुकी खंडमें आठ तथा पुष्करार्द्धमें बाट ऐसे २० तीर्थकर अरहंत पदमैं साक्षात् विराजमान हैं । इनके सिवाय जिनको तीर्थंकर पद नहीं है किन्तु सामान्य केवलज्ञानी हैं ऐसे गत भी अनेक विद्यमान हैं उनको भी आचार्यने एक साथ व भिन्न र नमस्कार किया है । नमस्कार के दो भेद हैं । वचन से स्तुति व शरीरसे नमन द्रव्य नमस्कार है तथा अंतः रंग श्रद्धा सहित आत्मा गुणोंमें लीन होना सो भाव नमस्कार है । इस भाव नमस्कारको टीकाकारने सिद्धभक्ति तथा योगभक्ति नामले सम्पादन किया है । जब तीर्थकर दीक्षा लेते हैं तब सिद्धभक्ति करके लेते हैं इसलिये टीकाकार ने इस भक्ति को दीक्षाक्षणका मंगलाचरण कहा है। अथवा मोक्षलक्ष्मीका स्वयंवर मंडप रचा गया है उसमें सिद्ध भक्ति करना मानो मोक्ष लक्ष्मी कंठमें वरमाला डालनी है। सिद्ध अनन्त दर्शन ज्ञान . सुख वीर्य्यादि गुणों घारी हैं तैसा ही निश्चयसे मैं हूं ऐसी
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भावना करनी सो सिद्ध भक्ति है । निर्मल रत्नत्रयकी एकतारूप
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