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'१४] श्रीमक्चनसार भाषाटीका । देव और साधु दोनों के भक गृही या उपासक होते हैं। चार प्रकारके देव, सर्व ही नारकी, तथा सैनी तिच और साधुपद रहित गृहस्थ मनुष्य उपासक हैं।
उपासक उपासकोंकी देव व साधुतुल्य पूजा भक्ति न. करके यथायोग्य सत्कार करले हैं । नमस्कारके योग्य तो साधु और देव ही हैं । इसो लिये श्री कुंदकुंदाच यंने इस गाथामें पांच पदवी धारकोंको नमन किया है । इस चौथे कालमें ५४ तीर्थकर हो गए हैं जो बड़े प्रसिद्ध धर्मप्रचारक हुए हैं उनको • भरहंत मानके नमस्कार किया है।
उत्थानिका-भागे फिर भी नमस्कार रूप गाथाको कहते हैं
ते ते सव्ये समगं, समग पत्तेगमेव पत्तेयं । । बंदामि य वहंते, अरहते माणुसे खेत्ते ॥३॥
तांस्तान् सर्वान् समकं समकं । त्येकमेव प्रत्येक 1 - यदे च वर्तमानानहतो मानुरे क्षेत्रे ॥ ३ ॥
सामान्याष-फिर मैं मनुष्यके ढाई द्वीप क्षेत्रमें वर्तमान सर्व अरहतोंको एक साथ ही तथा प्रत्येकको अगर ही बदना करता है | अथवा उन ऊपर कहे पांच' परमेष्टियों को एक साथ व अलग २ तथा ढई द्वोपमें वर्तमान अईतोंको भो नमस्कार करता हूं।
अन्वय सहित विशेपार्थ-(ते ते सव्वे ) उन उन "पूर्व में कहे हुए सब पंच परमेष्ठियोंको (समग समग) समुदाय रूप