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श्रीभवचनसार भाषाटीका । [3.
उपाध्याय तथा साधुमोंको नमस्कार किया है। मोक्षमार्ग में चल'नेवालोंके लिये ये ही पांच परमेष्ठी मानने योग्य हैं। इनके सिवाय : जो परिग्रह धारी हैं वे देव व गुरु मानने योग्य नहीं है। धर्मबुद्धिसे वात्सल्य व प्रेमभाव प्रदर्शित करने योग्य वे सब ही आत्मा हैं जिनको इन पांच परमेष्ठीक़ी श्रद्धा है तथा जो श्रद्धा वान होकर भी गृहस्थ श्रावकका चारित्र पालते हैं । इनमें भी जो थोड़े चारित्रवान हैं वे बड़े चारित्रवानोंका सत्कार करते व जो केवल श्रद्धावान हैं वे अन्य श्रद्धावानोंका व चारित्रवानों का ' सत्कार करते हैं । प्रयोजन यह है कि नमस्कार, भक्ति या विनय उस रत्नत्रय मई आत्मधर्मकी है जिनमें यह धर्म थोड़ा यां बहुत " बास करता है वे सर्व यथायोग्य विनय व सत्कार करनेके योग्य हैं-हम किसी सम्राटकी व धनाढ्यकी इसलिये विनय धर्मबुद्धिसे - नहीं कर सके कि इसने बहुत पुण्य कमाया है। हम हीन पुण्यो हैं इसलिये हमको पुण्यवानों की पूजा करनी है, यह बात मोक्ष - nife अनुकूल नहीं है । मोक्षमार्गमें तो वे ही पूज्य माननीय या सत्कार के योग्य हैं जिनमें यह रत्नत्रय मई धर्म थोडा या बहुत पाया जावे। यदि किसी पशु या चंडालमें श्रद्धा है तो यह मानने व सत्कार करने के योग्य है और यदि किसी चक्रवर्ती राजा श्रद्धा नहीं है तो वह धर्मकी अपेक्षा सत्कारके योग्य नहीं है ! पूज्य तो वास्तव में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र हैं। ये गुण जिन १ जीवोंमें हों वे जीव भी यथायोग्य सत्कारके योग्य हैं ।
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गृही या उपासक, साधु या निर्ग्रथ तथा देव ये तीन दरजे मोक्षमार्ग में चलने वालोंके हैं उनमें देवके भक्त साधु या गृही तथा