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श्रीवचनसार भाषाका |
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परमानन्द मई एक लक्षणके धारी सुखं रूपी अमृतसे विपरीत चार गति मई संसारके दुःखोंसे भयभीत थे । व जिसमें परम भेदज्ञानके द्वारा अनेकान्तके प्रकाशका माहात्म्य उत्पन्न होगया था व जिन्होंने सर्व खोटी नयोंके एकान्तका हठ दूर करदिया या तथा जिन्होंने सर्व शत्रु मित्र आदिका पक्षपात छोड़कर व त्यन्त मध्यस्थ होकर धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थीकी अपेक्षा अत्यतसार, और आत्महितकारी व अविनाशी तथा पंच परमेष्ठी के प्रसाद से उत्पन्न होनेवाले, मोक्ष लक्ष्मी रूपी पुरुषार्थको अंगीकार किया था । श्री वर्द्धमान स्वामी तीर्थकर परमदेवको आदि लेकर भगवान पांच परमेष्टियों को द्रव्य और भाव नमस्कार के द्वारा नमस्कार करते हैं ।
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भावार्थ - यद्यपि यहां टीकाकारके इन शब्दोंसे यह झककता है कि शिवकुमारजी आगेका कथन करते हैं परन्तु ऐसा नहीं है । आगे व्याख्यानोंसे झलकता है कि स्वामी कुंदकुदाचार्य ही इस अन्य कर्ता हैं तथा शिवकुमारजी मुख्य प्रश्नकर्ता है - शिवकुमारजीको ही उद्देश्य में लेकर आचार्यने यह ग्रन्थ रचा है !
गाथा
एस सुरासुरमसिंद, बंदिदं घोदघाइकम्मलं । पणमामि वडूमाणं, तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ १ ॥ . संस्कृत छाया
एष सुरासुरमनुष्ये द्रवन्दितं धौतधातिकमलम् । प्रणमामि वर्धमान तीर्थ धर्मस्य वर्तारम् ॥ १ ॥