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२] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
xmmmmmmmmmmmmmmmminenremain जा जान श्रद्ध विना, पथ सम्पन्न लाखाय । तिस आतमका भाव सव, भिन्नर दरशाय ॥ स्वसंवितिसे सार मुख, भोग भोग हुलशाय । अन्य भव्य पर कृपा कर, मारग दियो बताय॥ 'विस गुरुका आगम परम, है एक प्रवचन सार ।
चंद्रामृत टीका रची, संस्कृतम गुणकार ।। द्वितीय वृत्ति जयसेनने, लिख निज सुधा वदाय । ताका पय कर सुखभवो, रुचि वाड़ी अधिकाय॥ प्रथम चि भाषा करी; हेमराज बुधवान ।। द्वितीय पारी भाषा नहीं हुई अब तक यह ज्ञान। मंद बुद्धि पर रुचि धनी, ताके ही परसाद । बालबोध भाषा लिखू, कर प्रमादको वाद ।। निज अनुभवके कारणे, पर अनुभवके काज । जो कछु उद्यम बन पड़ा, है सहाय जितराज ॥
आगे श्री जयसेन भाचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिके अनुसार श्री प्रवचनसार आगमकी भाषा वचनका लिखी नती है। प्रथम ही वृत्तिकारका मंगलाचरण है। श्लोक-नमः परमचैतन्यस्थात्मोत्यमुखराम्पदे ।
___ परमागमसाराय .सिवाय परमेष्ठिने ॥ १ ॥ भावार्थ-परम चेतन्यमई अपने आत्मासे उत्पन्न सुख संपत्तिके धर्ता और परमागमके सार स्वरूप श्री सिद्ध परमेष्ठीको . नमस्कार हो।
प्रथम श्लोककी उत्थानिका:-एक कोई निकट भव्य शिवकुमार नामधारी थे जो स्वसंवेदनसे उत्पन्न होनेवाले