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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [षष्ठोऽधिकारः, अष्टौ मदस्थानानि संमार्जनादि प्रतिक्षणमयमाचरति, अनिर्विण्णो रूपवान् । त्वचा चर्मणासृजऽवता मांसेन चाच्छादिते स्थगिते । कलुषं मूत्रपुरीषरुधिरमेदोमजाऽस्थिस्नायुप्रभृति, तेन पूर्ण व्याप्ते । विनाशधर्मो यस्यास्ति तद्विनाशधेर्मि । निश्चयेन-अवश्यंतया अभ्यङ्गोद्वर्तनस्नानानुलेपनप्रतिविशिष्टान्नपानलालितमपि विनश्यति पर्यन्ते, कृम्यादिपुओ वा भस्मराशिर्वा शुष्कचर्मास्थिकलेवरप्रायं वा भवति । एवंविधे च रूपे किं पुनर्भवेत् मदकारणं येन माद्यन्ति निर्विवेका रूपभाजः ॥ ८६॥
अर्थ-यह नित्य ही संस्कार करने योग्य है । चर्म और माँससे ढका हुआ है । मलसे भरा है और नियमसे नष्ट होनेवाला है । ऐसे रूपमें मदका क्या कारण है ?
भावार्थ-शरीरमें नौ मलद्वार हैं । उनसे सदा ढीड, नाक, थूक, लार, वीर्य, मूत्र, विष्ठा, पसेव .. वगैरह मल बहा करता है । रूपवान् रागी मनुष्य हरसमय उसकी सफाईका ध्यान रखता है। चर्म और रक्त माँससे यह ढका हुआ है । किन्तु उसके अन्दर मूत्र, विष्ठा, खून, चर्बी, मज्जा, हड्डी, नसें वगैरह गन्दी चीजें भरी हुई हैं । तेल, उबटना, स्नान, लेप और अच्छे-अच्छे खान-पानसे इसका लालनपालन करनेपर भी यह प्रायः नष्ट होता है । अन्तमें यह या तो कीड़ोंका ढेर बन जाता है या राखका ढेर बन जाता है, अथवा हड्डी और चमड़ा मात्र रह जाता है । ऐसे रूपमें मद करनेका क्या कारण है ? जिससे नासमझ रूपवाले उसका मद करते हैं । बलका मद नहीं करना चाहिए :
बलसमुदितोऽपि यस्मान्नरः क्षणेन विबलत्वमुपयाति ।
बलहीनोऽपि च बलवान् संस्कारवशात् पुनर्भवति ॥ ८७ ॥
टीका–बलेन शारीरेण समुदितः सम्पन्नो बलवानपि यस्मात् क्षणेन-स्वल्पेनैव कालेन अतितीव्रज्वर विशूचिकावेदनातःसन् विगतबलो भवति । बलहीनोऽपि दुर्बलः सन्नपि धृतिमान् प्रणीतरसा भ्यवहारसंस्कारवशादाश्वेव बलसम्पन्नौ भवति जायते। संस्कारों वासना कर्मविपाकः, तद्वशात् 'वीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषात् ' इत्यर्थः ॥ ८७ ॥
अर्थ-यत: बलवान् मनुष्य भी क्षणभरमें बलहीन हो जाता है और बलहीन भी पुष्टिकर भोजन वगैरहके सेवनसे अथवा वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे बलवान् हो जाता है।
भावार्थ-मनुष्यको अपनो बलका भी मद नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह बल जिसका 'मनुष्य गर्व करता है, कोई स्थायी वस्तु नहीं है । अच्छेसे अच्छा बलवान् भी प्रबल रोग आदिके निमित्तसे क्षणभरमें बलहीन देखा जाता है और बलहीन मनुष्य भी वीर्यान्तरायके क्षयोपशम और बलप्रद साधनोंसे बलशाली देखा जाता है । अतः बल भी गर्व करनेकी वस्तु नहीं है ।
१-रक्तेनेत्यर्थः। २-मिणि-फ० ब०। ३-स्मादिरा-फ० ब०। ४-शुक्र-फ० ब०। ५-नोनरो ब-मु०। ६-रोवाकर्म-फ० ब०।