Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 220
________________ कारिका ३०७-३०८] प्रशमरतिप्रकरणम् २११ भावार्थ-इस मनुष्यलोकमें जो गृहस्थ है, वह तत्त्वार्थको अच्छी तरह जानकर जिनेन्द्रभगवान्के वचनोंमें निश्चय करता है कि भगवान्का कथन सत्य है, उनके द्वारा उपदिष्ट प्रवचन ही संसारसे पार लगानेवाला हैं। इस प्रकार निश्चय करके सम्यग्दर्शन, अणुव्रत, शीलव्रत, और अनित्यत्व आदि भावनाओंसे अपने मनको सुवासित करता है । वे व्रत और शील निम्न प्रकार हैं: स्थूल हिंसाका त्याग पहला अणुव्रत है । जो प्राणी वादर होते हैं, श्रावक उनकी हिंसा नहीं करता । किन्तु जो पृथ्वीकाय वगैरह सूक्ष्म जीव होते हैं, उनकी हिंसाका उसे त्याग नहीं होता। अथवा हिंसा दो प्रकारकी होती है:-एक संकल्पी और दूसरी आरंभी । 'मैं इसे मारूँगा'-ऐसा हृदयमें संकल्प करके जो किसी भी प्राणीका वध किया जाता है, वह संकल्पीहिंसा है। और आरंभ करनेसे जो हिंसा होती हैं, वह आरंभीहिंसा है । श्रावक संकल्पीहिंसाका त्याग करता है, आरंभीका नहीं; क्योंकि आरंभ किये विना उसका जीवन-व्यापार नहीं चल सकता । अतः स्थूल अर्थात् संकल्पीहिंसाका त्याग पहला अणुव्रत है । स्थूल झूठका त्याग दूसरा अणुव्रत है । जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी न बतलाकर अन्यथा बतलाना असत्य है । किन्तु हँसी दिल्लगीमें जो अन्यथा भाषण किया जाता है, श्रावक उसका त्याग नहीं करता है । विना दी हुई वस्तुके ग्रहण करनेको चोरी कहते हैं । जिसके ग्रहण करनेसे मनुष्य चोर कहा जाता है, वह स्थूल चोरी है । श्रावक ऐसी चोरीका त्याग करता है। यह तीसरा अणुव्रत है । चौथे अणुव्रतके दो प्रकार है:-एक स्वदारसन्तोष और दूसरा परदारनिवृत्ति । स्वदारसन्तोषव्रतीके लिए परस्त्रीसेवन और वेश्यागमन-दोनों ही स्थूल हैं, अतः वह दोनोंका त्याग करता है। किन्तु परदारनिवृत्तिका पालक परस्त्रीगमनका तो त्याग करता हैं; पर वेश्यागमनका त्याग नहीं करता; क्योंकि वेश्या किसीकी परिगृहीत स्त्री नहीं है । सर्वदा विषयोंमें प्रीति करनेका और व्रतपालन आदि क्रियाओंमें द्वेष करनेका त्याग करना पाँचवाँ अणुव्रत है। इस व्रतको इच्छापरिमाण भी कहते हैं । अर्थात् खेत, मकान वगैरहकी इच्छाका परिमाण करना कि इतने मकान-खेत, इतना सोना-चाँदी, इतना धन-धान्य वगैरह रखनेका मैं नियम करता हूँ-यह इच्छापरिमाण नामका पाँचवाँ अणुव्रत है। अथाशक्ति रात्रिभोजनव्रतका भी पालन करना चाहिए। ये पाँच अणुव्रत हैं । सप्तशील निम्न प्रकार हैं: चारों दिशाओंमें तथा ऊपर-नीचे जानेका परिमाण करना कि मैं अमुक दिशाओंमें अमुक स्थानतक ही जाऊँगा-उससे आगे नहीं जाऊँगा; यह पहला दिग्वत है । दिग्बतके द्वारा परिमित देशमें प्रतिदिन जो गमना-गमनकी मर्यादकी जाती है, कि आज मैं अमुक अमुक स्थानतक जाऊँगा, उसे देशावकाशिकव्रत कहते हैं। विना प्रयोजन मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति करनेको अनर्थदण्ड कहते हैं। इसके अनेक भेद हैं और उसके त्यागको अनर्थदण्डव्रत कहते हैं। प्रतिक्रमणको अथवा मन, वचन, कायसे सावद्य प्रवृत्ति त्याग करनेको सामायिक कहते हैं । चैत्यालयमें अथवा साधुओंके निकटमें जबतक बैठता है तबतक सामायिक करनेकी प्रतिज्ञा करता है कि हे भगवन् ; मैं सामायिक करता हूँ, अमुक अमुक समयतक सावद्ययोगका त्याग करता हूँ अथवा अमुक अमुक समयतक भगवान् अर्हन्तदेवके १ "आसमयमुक्ति मुक्तं पञ्चाघानामशेषमावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ॥" -श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्यकृत-रत्नकरण्डश्रावकाचार ॥ ९७ ॥

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