Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 221
________________ २१२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वाविंशाधिकारः, अन्तफलाभिधानम् विम्बकी और साधुओंको उपासना करता हूँ । अष्टमी-पौर्णमासी आदिके दिन आहारादिको पौषध कहते हैं । उसके चार भेद हैं । आहारका त्याग, शरीरके संस्कारका त्याग, ब्रह्मचर्य धारण और पापयुक्त व्यापारका त्याग । पुष्प, धूप, स्नान, अङ्गराग वगैरह जिन वस्तुओंको एक बार ही भोग सकते हैं, उन्हें उपभोग कहते हैं और वस्त्र, शय्या आदि जो वस्तुएँ बार-बार भोगने में आती हैं, उन्हें परिभोग कहते हैं । उनके परिणाम करनेको भोगोपभोगपरिमाणव्रत कहते हैं। वह परिमाण दो प्रकारसे होता हैएक भोजनकी अपेक्षासे और दूसरा कार्यकी अपेक्षासे । भोजन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदिका परिमाण करना और मद्य, मांस, मधु अनन्तकाय वगैरहका त्यागना भोजनकी अपेक्षासे परिमाण करना है तथा आग, वन, गाड़ी-भाड़ा आदि पन्द्रह प्रकारके खरकर्मोसे आजीविका त्याग करना कर्मकी अपेक्षासे परिमाण करना है। सातवाँ ब्रत अतिथिसंविभाग है । पौषधकी पारणाके समयमें न्यायपूर्वक अनिन्दनीय व्यापारके द्वारा उपार्जित द्रव्यसे खरीदे गये शुद्ध चावल, घी वगैरह द्रव्योंसे साधुके उद्देश्यसे न बनाये गये भोजनमें से घर आये हुए साधुओंको विधिपूर्वक जो दान दिया जाता है, उसे अतिथिसंविभागवत कहते हैं । पात्रग्रहणसे यह स्पष्ट है कि घरपर पधारे हुए साधुओंको ही आहारदान देना चाहिए। अपने वर्तनोंमें साधुओंकी वसतिकाओंमें ले जाकर नहीं देना चाहिए। अतिथिसंविभागवती श्रावक जो वस्तु साधुओंको नहीं देता, पारणाके समय वहं वस्तु स्वयं भी नहीं खाता । इस प्रकार श्रावक इन पाँच अणुव्रतों और सात शीलोंका पालन करता है । तथा अपनी शक्तिके अनुसार गाजे-बाजे, स्वजन-परिवारके बड़े भारी समारोहके साथ जिससे प्रवचनकी प्रभावना हो, उस ढंगसे चैत्यालयोंकी प्रतिष्ठा करता है और दीप-धूप, माला वगैरहसे जिनभगवान्की पूजन करता है । उसकी सदैव यही अभिलाषा रहती है कि कब साधु बनकर कषायरूपी शत्रुओंको जीतूं। इसके सिवाय वह तीर्थङ्कर भगवान्, आचार्य, उपाध्याय वगैरह गुरु और साधुजनोंको नमस्कार करनेमें सदैव संलग्न रहता है । जब मरणकाल आता है तो शरीर और कषाय आदिको कृश करके आज्ञाविचय आदि ध्यानके द्वारा जीने-मरनेकी इच्छा आदि दोषोंसे रहित शुद्ध सल्लेखनापूर्वक मरण करता है। इस प्रकार गृहस्थ पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत--इन बारह प्रकारके श्रावकधर्मका पालन करके तथा अन्तमें सल्लेखनाका आराधन करके देवलोकमें या तो इन्द्रपदको प्राप्त करता है या इन्द्रके ही समान सामानिक पदको प्राप्त करता है या किसी अन्य प्रभावशाली वैमानिकदेवका पद प्राप्त करता है । यहाँपर अपने पदके अनुरूप जघन्य, मध्यम अथवा उत्कृष्ट सुखको भोगता है । आयुके क्षय होनेपर वहाँसे चयकर वह मनुष्यलोकमें जन्म लेता है । यहाँपर भी उसे जाति, कुल, वैभव, रूप, सौभाग्य आदि सम्पदा सभ्यक्त्व आदि प्रशस्त गुण प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सुखकी १. "व्रतयेत् खरकर्मात्र मलान् पञ्चदश त्यजेत् । वृत्ति वनाग्न्यनस्फोटभाटकैयन्त्रपीडनम् ॥ २२॥ निलाञ्छनासतीपोषौ सर:शोषं दवप्रदाम् । विषलाक्षादन्तकेशरसवाणिज्यमङ्गिरुक ।। २२ ॥ इति केचिन्न तच्चारु लोके सावद्यकर्मणाम् । अगण्यत्वात् प्रणेयं वा तदप्यतिजडान प्रति ॥ २३ ॥ -पंडित प्रवर आशाघरकृत-सागारधर्मामृत ५ वाँ. अ.

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