Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 186
________________ कारिका २५६.२५७-२५८-२५९ ) प्रशमरतिप्रकरणम् १७७ अर्थ-समस्त देवताओं में प्रधान इन्द्र आदिकी जो ऋद्धि होती है वह आश्चर्यकारी होती है। किन्तु यदि उस आश्चर्यकारिणी ऋद्धिको एक लाख कोटिसे गुणा किया जावे तो भी वह ऋद्धि मुनिको प्राप्त हुई ऋद्धिके एक हजारवें भागके बराबर भी नहीं होती। भावार्थ-संसारके प्राणियोंकी दृष्टिमें देवोंके अधिपति इन्द्रों तथा कल्पातीत अहमिन्द्रोंकी विभूति बड़ी आश्चर्यकारिणी होती है। उसे सुनकर उन्हें आश्चर्य होता है। परन्तु मुनिजनोंको जो ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनके सामने वे ऋद्धियाँ एकदम तुच्छ हैं। . तज्जयमवाप्य जितविघ्नरिपुभवशतसहस्रदुष्पापम् । चारित्रमथाख्यातं सम्प्राप्तस्तीर्थकृत्तुल्यम् ॥ २५८ ॥ टीका-तस्या जयस्तज्जयस्तमवाप्य । तज्जयं विभूतेरनुपजीवनम् । उत्पन्नानामपि लब्धीनां साधवो न परिभोगान् विदधते । जिता निराकृता विघ्नप्रधाना रिपवः कषायाः क्रोधादयो भवशतसहस्रैर्जन्मलक्षाभिरपि दुष्प्रापं दुर्लभं चारित्रमारव्यातं यथाख्यातमेवारव्यातं सम्प्राप्तस्तीर्थकृत्तुल्यम्, यथा तीर्थकरस्तत्स्थानं तथाऽसावपि भवतीति विशिष्टेनोपमा क्रियते ॥ २५८॥ अर्थ-विघ्न करनेवाले क्रोधादि कषायोंका जेता मुनि, उन ऋद्धियोंपर विजय प्राप्त करके लाखों भवोंमें भी दुर्लभ यथाख्यातचारित्रको तीथकरके समान प्राप्त करता है । भावार्थ-ऋद्धयों के प्राप्त होनेपर भी साधु जन उनका उपभोग नहीं करते हैं। अतः ऋद्धियोंका उपभोग न करना ही उनपर विजय प्राप्त करना है । तथा यथाख्यातचारित्रकी प्राप्तिमें क्रोधादि कषाय बाधक है । जो साधु उन कषायोंको जीतकर प्राप्त हुई ऋद्धियोंपर भी विजय प्राप्त करता है. उसे तीर्थंकरों के समान चारित्रकी प्राप्ति होती है। अर्थात् जिस प्रकार तीर्थकर ययाख्यातचारित्रको प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार वह भी यथाख्यातचारित्रको प्राप्त करता है। यह यथाख्यातचारित्र लाखों भवोंमें भी दुर्लभ है। इसके विना तीर्थंकरोंके भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती । इसीसे उसका महत्त्व बतलानेके लिए तीर्थकरकी उपमा दी है। शुक्लध्यानाद्यद्वयमवाप्य कर्माष्टकप्रणेतारम् । संसारमूलबीजं मूलादुन्मूलयति मोहम् ॥२५९ ॥ १-" मोहनीयस्य निखशेषस्योपशमात् क्षयाच्च आत्मस्वभावस्थापेक्षालक्षणं यथाख्यातचारित्रमित्या ख्यायते। पूर्वचारित्रानुष्ठायिभिराख्यातं न तत्प्रासं प्राङ्मोहक्षयोपशमाभ्यामित्यथाख्यातम् । अथ शब्दस्थानन्तरार्थवतित्वानिरवशेषमोहक्षयोपशमानन्तरमाविर्भवतीत्यर्थः । तथाऽऽख्यातमिति वा यथात्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात् । इति शब्दः परिसमाप्तौ दृष्टव्यः । ततो यथाख्यातचारित्रात् सकलकर्मक्षयपरिसमाप्तिर्भवतीति ज्ञाप्यते ।" -श्रीपूज्यपादकृत-सर्वार्थसिद्धिका अध्याय ९, सूत्र १८ की व्याख्या प्र०२३

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