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कारिका २९२-२९३-२९४ ]
प्रशमरतिप्रकरणम्
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...अर्थ---योग और क्रियाका अभाव होनेसे वह तिरछा भी गमन नहीं करता है । अतः मुक्त सिद्धजीवकी गति ऊपर सीधी लोकके अन्ततक होती है ।
भावार्थ-मुक्तजीवके न तो मनोयोग, वचनयोग और काययोग ही है और न क्रिया ही है । अतः पूर्व आदि दिशाओंसे उसकी गति सम्भव नहीं है। क्योंकि उसके तिर्थग्गमनमें योग और क्रिया ही कारण है और उसके इनका सर्वथा अभाव है। इस प्रकार वह न नीचे जा सकता है और न तिरछे जा सकता है । इसके अतिरिक्त यहाँ ठहरनेका भी कोई कारण नहीं है । अतः सिद्धजीव ऊपरको ही जाता है । किन्तु ऊपर भी वह लोकके अन्ततक ही जाता है, आगे नहीं जाता; क्योंकि गमनमें सहायक धर्मद्रव्य लोकान्तसे आगे नहीं रहता। यह पहले कह चुके हैं।
अथोर्ध्वगतिस्तस्य निष्क्रियस्य सतः कथं भवतीत्याशङ्कयाहशङ्का-यदि मुक्तजीवके क्रिया भी नहीं है तो वह ऊर्ध्वगमन कैसे करता है ! इसका उत्तर
देते हैं:
पूर्वप्रयोगसिद्धेर्बन्धच्छेदादसंगभावाच ॥
गतिपरिणामाच तथा सिद्धस्योचं गतिः सिद्धा ॥ २९४ ॥
टीका-पूर्वप्रयोगस्तृतीये शुक्लध्याने सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिनिवर्तमानेन देहत्रिभागहानिविधानकाले यः संस्कार आहितः । क्रियायास्तेन पूर्वप्रयोगेण सिद्धेर्बन्धच्छेदात् असंगभावाच्चै तस्य गमनं सिध्यति । अतः पूर्वप्रयोगसिद्धेर्दोलागमनवत् पूर्वसंस्काराद्भवति । तथा बन्धनच्छेदादेरण्डबीजकुलिकावत् कर्मबन्धनत्रोटनादूर्ध्व गतिः सिद्धा भवति मुक्तात्मनः । असंगभावात् । गतलेपालाबुकवत् पयसि प्लवते । संगो लेपस्तदभावादसंगत्वात् । तथा गतिपरिणामाच दीपशिखावत् । नहि दीपस्य जातुचिच्छिखाऽग्ने,ज्वाला निमित्ताभावे सति तिर्यगधो वा व्रजति । तस्मादूर्ध्वमेव गच्छति मुक्तात्मेति ।। २९४ ॥ ..
अर्थ-पूर्व प्रयोगसे सिद्धि होनेके कारण, कर्मबन्धका छेद हो जानेके कारण, निष्परिग्रह होनेके कारण, तथा ऊपर जानेका स्वभाव होनेके कारण सिद्धजीवकी ऊर्ध्वगति सिद्ध है ।
भावार्थ-जिस प्रकार कुम्हार पहले दण्डके सहारेसे चक्रको घुमाता है और इसके पश्चात् दण्डके हटा लेनेपर भी चक्र घूमता ही रहता है । उसी प्रकार सूक्ष्मक्रियअप्रतिपाति नामके तीसरे शुक्लध्यानके समयमें आत्म-प्रदेशोंकी अवगाहनाको एक तिहाई हीन करते हुए जीवमें क्रियाका जो संस्कार रह जाता है, उसी संस्कारके वशसे वह वादको ऊर्ध्वगमन करता है ।
१-सपूर्व-ब० । २-तृतीयशु-ब०। ३- बन्धन्छेदादसङ्गभावाच्च, त्रुटितोऽयमंशः-फ० ब०
पुस्तकयोः
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