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कारिका २६३ ] . प्रशमरतिप्रकरणम्
१८१ नरकगति, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक और साधारणशरीर । तथा दर्शनावरणकर्मकी निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानर्धि-इन तीन प्रकृतियोंका क्षपण करता है। उसके बाद अप्रत्यारव्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणकी आठ कषायोंका जो भाग अवशिष्ट रहता है, उसका क्षपण करता है । उसके बाद नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका क्षपण करता है। उसके बाद हास्य, रति, अरति, भय शोक और जुगुप्साका क्षय करता है। उसके बाद पुरुषवेदके तीन भाग करके दो भागोंका एकसाथ क्षपण करता है और तीसरे भागको संज्वलन मानमें मिला देता हैं। फिर क्रोधके भी तीन भाग करके दो भागोंका एकसाथ क्षपण करता है और तीसरे भागको संज्वलन मानमें मिला देता है । फिर संज्वलन मानके भी तीन भाग करके दो भागोंका एकसाथ क्षपण करता है । और तीसरे भागको संज्वलन मायामें मिला देता है। फिर संज्वलन मायाके भी तीन भाग करके दो भागोंका एकसाथ क्षपण करता है, और तीसरे भागको संज्वलन लोभमें मिला देता है । फिर संज्वलन लोभके भी तीन भाग करके दो भागोंका एकसाथ क्षपण करता है । उसके बाद एक भागके संख्यात खण्ड करता है। स्थूल खण्डोंका क्षपण करता हुआ मुनि वादरसाम्पराव्य (नवम गुणस्थानवर्ती) स्थूल कषायवाला कहा जाता है। उनमसे जो अन्तिम संख्यातवाँ खण्ड अवशेष रहता है, उसके भी असंख्यात खण्ड करता है । उन सूक्ष्म खण्डोंको क्रमसे क्षपण करता हुआ क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय-सूक्ष्म कषायवाला (दशम गुणस्थानवर्ती) कहा जाता है । उन सूक्ष्म खण्डोंका भी पूरी तरहसे क्षपण करनेपर निर्ग्रन्थ (वारहवें गुणस्थानवर्ती) होता है । यह निम्रन्थ मोहरूपी महासमुद्रको पार कर लेता है । और पार करके एक मृहूर्त तक उसी तरह विश्राम करता है, जिस प्रकार अगाध समुद्रको पार करके कोई मनुष्य विश्राम करता है । इस प्रकार विश्राम करनेके पश्चात् जब मुहूर्तमें दो समय शेष रह जाते हैं, तो उन दो समयोंमेंसे पहले समयमें दर्शनावरणकी निद्रा और प्रचला प्रकृतिका क्षपण करता है और अन्तिम समयमें ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी चार, और अन्तरायकी पाँच प्रकृतियोंका एकसाथ क्षपण करके केवलज्ञानको प्राप्त करता है। इस प्रकार एकसौबाईस प्रकृतियोंमेंसे साठ प्रकृतियों का क्षपण करने पर केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है।
१-" अपर:-असंयतसंयतासंयताप्रमत्तसंयतागुणस्थानेषु कस्मिश्चित् सप्त प्रकृतीः क्षयमुपनीय क्षायिकसम्यग्दृष्टिभूत्वा चारित्रमोहमुपशमयितुमुपक्रमते । ततोऽधःप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणम निबृत्तिकरणं च कृत्वा उपशमश्रेणिमारुह्यापूर्वकरणोपशमकगुणस्थानव्यपदेशमनुभूय तत्राभिनवशुभामिसेधितन् कृतपापकर्मप्रकृतिस्थित्यनुभागः विवतिशुभकर्मानुभवः, अनिवृत्तिवादरसाम्परायोपशमकगुणस्थानमधिरुह्य नपुंसकवेदस्त्रीवेदनोषायषट्क'वेदाप्रत्या. ख्यानप्रत्याख्यानक्रोधद्वयमायाद्वयलोभद्वयक्रोधमानसंज्वलनसंशिकाः प्रकृतीः क्रमेणोपशमय्य ततः सूक्ष्मसाम्परायप्रथमसमये मायासंज्वलने चोपशमं गते सर्वमोहप्रकृत्युपशमात् उपशान्तकवायव्यपदेशभाग् भवति । आयुषः क्षयात् म्रियते । अथवा पुनरपि कषायानुदीरयन् प्रतिनिवर्तते । स एव चान्यो वा विशुद्धध्यवसायानुवरतोत्साहः पूर्ववत् क्षायिकसम्यकदृष्टिभूत्वा कर्मविशुद्धया महत्या विशुद्ध यन् क्षाकश्रेणीमनुमद्य तैरेव करणस्त्रिभिः पूर्ववदपूर्वकरणक्षपकतामाश्लिष्य तत ऊर्ध्व कषायाष्टकं क्षयं कृत्वा नपुंसक वेदं नाशमापाद्य स्त्रीवेदमून्मील्य नोकषायषट्के पुंवेदे प्रक्षिप्य क्षपयित्वा पुंवेदं क्रोधसंज्वलने, क्रोधसंज्वलनं मानसंज्वलने, मानसंज्वलनं मायासंघलने, मायासंचलनं च लोभसंज्वलने संक्रमणक्रमेण वादरकृष्टिविभागेन विलयमुग्नीय, अनिवृत्तिवादरसाम्परा क्षपकभावमवाप्य, लोभ. संज्वलनं तनूकृत्य सूक्ष्मसापरायक्षपकभावमनुभूय, निरवशेष मोहनीयं निर्मूलका कषयित्वा क्षीणकषायतामधिरुष