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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [विंशोऽधिकारः, योगनिरोधः सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति काययोगोपयोगतो ध्यात्वा । विगतक्रियममनिवर्तित्वमुत्तरं ध्यायति परेण ॥ २८० ॥
टीका-ध्यानं सूक्ष्मकियमप्रतिपाति सूक्ष्मकाययोगस्थित एव ध्यायति । तदेव शैलेशी त्रिभागहीनमात्मप्रदेशराशिः करोति । किमर्थमिति वेद्यानि शरीरे निर्वतितानि मुखश्रवणनासिकादिच्छिद्राणि तत्परिपूरणार्थ घनीकरोति, आत्मानं त्रिभागहीनावगाहसंस्थानपरिणाहं करोतीत्यर्थः । ततश्चतुर्थशुक्लध्यानभेदं परेण ध्यायति। विगतक्रियमनिवर्तिध्यानं निरुद्धयोगो व्युपरतसकलक्रियमनिवर्तिध्यानमुत्तरध्यानं (ध्यायन् ) चरमकर्माशं क्षपयति ॥ २८ ॥
अर्थ--काययोगका निरोध करते हुए ही सूक्ष्मक्रियअप्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान होता है, उस ध्यानके अनन्तर विगतक्रिय नामक ध्यान होता है । इस ध्यानके पश्चात् अन्य कोई ध्यान नहीं होता, अतः यह अनुत्तर है।
भावार्थ-जिस समय केवली सूक्ष्मयोगमें स्थित होते हैं, उसी समय उनके सूक्ष्मक्रियअप्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान होता है । और उसी समय वे शैलेशी करते हैं । उस समय उनके आत्म-प्रदेशोंकी अवगाहना शरीरकी अवगाहनासे एक तिहाई हीन हो जाती है । क्योंकि शरीरमें मुख, नाक, कान वगैरहमें जो छिद्र हैं, वे पूरित हो जाते है और उनके पुर जानेसे आत्माके प्रदेश घनीभूत हो जाते हैं । अतः आत्माके प्रदेशोंकी अवगाहना मूलशरीरकी अवगाहनासे त्रिभागहीन रह जाती है । उसके पश्चात् सकलयोगका निरोध होनेपर व्युपरतसकलक्रिय नामक चौथा शुक्लध्यान होता है। इस ध्यानके द्वारा वे अवशिष्ट कर्मप्रकृतियोंको क्षय कर देते हैं ।
चरमभवे संस्थानं यादृग्यस्योच्छ्रयप्रमाणं च ।
तस्मात्रिभागहीनावगाहसंस्थानपरिणाहः ॥२८१ ॥
टीका–उक्त एवार्थोऽस्याः कारिकायाः, पुनस्तथाप्युच्यते । चरमभवे पश्चिमजन्मनि । संस्थानमाकारः यादृग् यस्य सिद्धिमुपजिगमिषोः संस्थानं शरीरोच्छ्राय एव प्रमाणम् । तस्य त्रिभागहान्या संस्थानपरिणाहं करोति ॥ २८१॥
___ अर्थ-अन्तिम भवमें जिस केवलीका जितना आकार और जितनी उँचाई होती है, उससे उसके शरीरका आकार और ऊँचाई एक तिहाई कम हो जाती है।
भावार्थ-इस कारिकाका अर्थ यद्यपि पहले कह आये हैं तथापि स्पष्टताके लिए पुनः कहते हैं। जिस मुमुक्षुका अन्तिम भवमें जैसा आकार होता है और जितनी उँचाई होती है उससे उसकी उचाई तथा आकार एक तिहाई कम हो जाता है । अर्थात् उसकी अवगाहना दो तिहाई बाकी रह जाती है।
१-मुत्तरं ध्यानं-फ० ब०। २-षष्ठ कर्म-ग्रन्थ, पृ. २६४,-श्रीजिनभद्रक्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यकभाष्य, गा. ३६८१ । ३-आवश्यकनियुक्ति गाथा ९७४ ।