Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 195
________________ દ્ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ एकोनविंशाधिकारः, समुद्धांत करता हुआ केवलज्ञानी जघन्यमें दो घड़ीतक और उत्कृष्टसे आठ वर्ष कम एक पूर्वकोटिकालतक भव्यजीवों को धर्मोपदेश करता हुआ विहार करता है । कर्मभूमिज मनुष्यकी उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि वर्षकी होती है और वह कमसे कम आठ वर्षकी अवस्था होनेपर दीक्षा लेता है और दीक्षा लेते ही उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है । ऐसी अवस्थामें वह आठ वर्ष कम एक पूर्वकोटितक विहार करता है । तेनाभिन्नं चरमभवायुदुर्भेदमनपवर्तित्वात् । तदुपग्रहं च वेद्यं तत्तुल्ये नामगोत्रे च ॥ २७२ ॥ टीका - तेनायुषा अभिन्नं सदृशमित्यर्थ । चरमे भवे पश्चिमे भवे आयुःपर्यन्तजन्मनि दुर्भेदमित्यमेद्यमेव अध्यवसायनिमित्तादिभिः सप्तभिः कारणैः कस्मादनपवर्तित्वात् चरमभवायुषोऽपवर्तनं नास्ति । ततश्च तस्यायुषो यत् प्रमाणं यावती स्थितिस्तावस्थितिकानि वेद्यनामगोत्राणि तैरभिन्नं सदृशमायुरिति । अथवा न तेनायुषा सहाभन्नं वेद्यादित्रयसदृशमेवे - त्यर्थः । तेन चायुषा उपगृहीतं वेद्यं नामगोत्रे च सत्यायुषि तेषां संभवादिति ॥ २७२ ॥ अर्थ - अन्तिम भवकी आयु अभेद्य होती है; क्योंकि उसका अपवर्तन नहीं होता । और उस आयुसे उपगृहीत वेदनीयकर्म भी उसीके समान अभेध होता है । और नाम तथा गोत्रकर्म भी उसीके समान अभेद्य होते हैं । भावार्थ - चरमशरीरीकी आयुका घात नहीं हो सकता; क्योंकि चरमशरीरी अनपवर्त्यायुष्क होते हैं । अर्थात् विष शस्त्रादिकसे उनका अकालमें मरण नहीं हो सकता । तथा आयुकर्मकी जितनी स्थिति होती है, वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मकी भी उतनी स्थिति होती है। अतः वे तीनों कर्म भी कर्मके समान ही होते हैं। क्योंकि आयुकर्मकी स्थितिपर ही उनकी स्थिति अवलम्बित है आयुकर्मसे उपकृत हैं। आयुकर्मके सद्भावमें ही वेदनीय आदि कर्म ठहर सकते हैं । । अतः यस्य पुनः केवलिनः कर्म भवत्यायुषोऽतिरिक्ततरम् । स समुद्घातं भगवानथ गच्छति तत् समीकर्तुम् ॥ २७३ ॥ टीका - यस्य केवलनिश्चरमायुष्कात् । कर्मवेद्यनामगोत्राख्यम् । अतिरिक्तमधिकं भवति । स केवली वेद्यादित्रयमायुषा सह समीकर्त्तुं तत्तुल्यतामेतुं समुद्धातं याति । गत्वा च यावत्प्रमाणमायुस्तावत्प्रमाणानि वेद्यनामगोत्राणि विदधाति । सम्यगुत्कृष्टं हननं गमनं समुद्घातः । नातः परं गमनमस्ति । लोकाद्वहिर्गमनाभावात् ॥ २७३ ॥ अर्थ - किन्तु जिस केवलीके वेदनीयादिक कर्म आयुकर्मसे अधिक स्थितिके होते हैं, वह भगवान् केवल उनको बराबर करने के लिए समुद्धात करते हैं। १ - यहाँ कुछ अधिक आठवर्ष समझने चाहिए । २-मनुप-फ० । २ - सहाभिन्नं - ब० । ४ - ६. वृ. के अन्तर है ।

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