Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 120
________________ कारिका १६०-१६१-१६२ ] प्रशमरतिप्रकरणम् टीका-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च सुष्टु निर्दोषमाख्यातः । किमर्थमारव्यात इत्याहजगद्धितार्थम् , जगच्छब्देन प्राणिनोऽभिधित्सिता जगद्भयः प्राणिभ्यो हितमेतदिति । प्रति. विशिष्टं प्रयोजनमुद्दिश्याख्यातः । जिनैस्तीर्थकृद्भिः । अरयः क्रोधादिपरीषहकर्माख्याः । जितोऽभिभूतो निराकृतोऽरिगणो यैस्ते जितारिंगणाः । इत्थंलक्षणे च धर्म आगमरूपे क्षमादिलक्षणे च । ये रताः सक्तास्ते संसारसागरं लीलया अनायासेन सुखपरम्परया । उत्तीर्णाः परं पारमुपताः। मोक्ष प्राप्ता इत्यर्थः ॥ १६१ ॥ ___ अर्थ-कर्मरूपी शत्रुओंके जेता तीर्थंकरोंने संसारके कल्याणके लिए इस आगमरूप और उत्तमक्षमादि लक्षण धर्मका निर्दोष कथन किया है। इसमें जो अनुरक्त हुए, उन्होंने संसाररूपी समूद्रको अनायास ही पार कर लिया। ___ भावार्थ-धर्मके मार्ग-पर चलनसे ही मनुष्य आत्म-कल्याण कर सकता है । जबतक वह धर्मके रास्ते पर नहीं चलता, उसका अनादि संसार-परिभ्रमणके चक्रसे छुटकारा नहीं हो सकता। कर्म शत्रुओंपर विजय प्राप्त करनेवाले जिनेन्द्रभगवान्ने इस धर्मके दो रूप बतलाये हैं। पहला आगमरूप है और दूसरा उत्तम क्षमादि दशलक्षणरूप है । आगमरूप धर्मसे मनुष्य स्त्र और परका बोध करता है और अपनी अविराम साधनासे संसार-चक्रसे मुक्ति-लाभ करता है। उत्तम क्षमादिरूप धर्मका लाभ भी प्राणियोंको इसी प्रकार संसार-सागरसे पार उतारता है। दुर्लभबोधित्वभावनामधिकृत्याहदुर्लभबोधिभावनाको कहते हैं : मानुष्यकर्मभूम्यार्यदेशकुलकल्पतायुरुपलब्धौ । श्रद्धाकथकश्रवणेषु सत्स्वपि सुदुर्लभा बोधिः ॥ १६२ ॥ टीका प्राक् तावन्मानुषजन्मैव दुर्लभं चोलकादिदृष्टान्तदशकेन विभावनीयम् । सति च मानुषजन्मनि कर्मभूमिः सुदुर्लभा । कर्मभूमिरपि यत्र तीर्थकृत उत्पद्यन्ते सद्धर्मदेशनाप्रवणाः परिनिर्वाणं प्राप्नुवन्ति भन्याः, पञ्च भरतानि, पञ्चैरावतानि विदेहाश्व पञ्चैव । मानुषत्वे कर्मभूमौ च सत्याम् आर्यो देशो मगधो वंगकलिंगादिवा दुर्लभः। सत्स्वेतेषु त्रिषु, कुलमन्वयविशुद्धिदुर्लभा । इक्ष्वाकुहरिवंशादि कुलम् । एतेष्वपि कुलपर्यन्तेषु कल्पता नीरोगता दुर्लभा। एतेषु च कल्पतान्तेषु अवाप्तेषु दीर्घमायुर्दुर्लभम् । आयुष्कान्तेषु च समासादितेषु श्रद्धाधर्म जिज्ञासा दुर्लभा । सत्यामपि जिज्ञासायां कथकः सद्धर्मस्याख्याता दुर्लभः । सत्यपि कथके श्रवणमाकर्णनं प्रस्तावाभावाद् दुर्लभम् , अनेकगृहकार्यव्यग्रत्वाद् आलस्यमोहावज्ञामदप्रमादकृपणत्वभयशोकाज्ञानकुतूहलादिभिश्च श्रवणं प्रति न प्रवृत्तिर्भवति । सत्स्वप्येतेषु श्रवणपर्यन्तेषु १-कल्पना-फ० ब०! २-कल्पनान्तेषु,-फ० ब०।

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