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कारिका १८८-१८९] प्रशमरतिप्रकरणम्
१३१ टीका-जीवा इति संभवन्तः प्राणभाज उक्ताः। ते च द्रव्यभावभेदेन प्राणा द्विप्रकाराः। तत्र द्रव्यप्राणाः “पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छासनिःश्वासबलं तथायुरिति ।" भावप्राणास्तु ज्ञानदर्शनोपयोगाख्याः। एभिः प्राणैरजीविषुर्जीवन्ति जीविष्यन्ति चेति जीवाः । तद्विपरीतास्त्वजीवाः । पुण्यं सातादिद्वाचत्वारिंशत्कर्मप्रकृतयः । पापं व्यधिकाशीति कर्मभेदानाम् । आस्रवः कायवाग्मनोभिः कर्मयोग आत्मनः । एषामेवाश्रवाणां निरोधः संवरः । सह निर्जरणेन सनिर्जरणाः। निरुद्धेष्वास्रवद्वारेषु गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचरणयुक्तस्य तपोऽनुष्ठानात् कर्म निर्जरणं भवतीति । मिथ्यादर्शनादयो बन्धहेतवः । तद्योगात् सकषायः सन्नात्मा कर्मणोयोग्यान् दलानादत्ते स बन्धः । बन्धहेत्वभावनिर्जराम्यां कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः। इत्थमेते सम्यक् चिन्त्याः सम्यगालाच्या अन्यस्मै प्रतिपाद्या नव पदार्थाः । ननु च शास्त्रे सप्ताभिहिताः, कथमत्र नवेति ? उच्यते-शास्त्रे पुण्यपापयोर्बन्धग्रहणेनैव ग्रहणात् सप्त संख्या । इह तु भेदेनापादानं पुण्यपापप्रकृतिविभागप्रतिपादनार्थमिति ॥ १८९ ॥
अर्थ-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरी, बन्ध और मोक्ष-इन नौ पदार्थोंका अच्छी तरह चिन्तन करना चाहिए ।
भावार्थ-जो अपने अपने योग्य प्राणोंको धारण करते हैं, उन्हें जीव कहते हैं । वे प्राण दो प्रकार के होते हैं—एक द्रव्यप्राण और दूसरे भावप्राण । पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, श्वासोच्छास और आयु-ये दस द्रव्यप्राण हैं । तथा ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग, भावप्राण हैं । इन प्राणोंसे जो जिये थे, जीते हैं, और जीवेंगे, उन्हें जीव कहते हैं। उनसे विपरीत अजीव होते हैं । सातावेदनीय वगैरह ४२ कर्मप्रकृतियोंको पुण्य कहते हैं । असाताबेदनीय आदि ८२ कर्मप्रकृतियोंको पाप कहते हैं। मनोयोग, वचनयोग, और काययोगसे आत्मामें कर्मोंके आनेको आस्रव कहते हैं । आस्रवके रोकनेको संवर कहते हैं । आस्रवके द्वारोंके रोके जानेपर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और वारित्रसे युक्त साधुके तप करनेसे जो कर्म झड़ते हैं वह निर्जरा है । बन्धके कारण मिथ्यादर्शन वगैरहके निमित्तसे कषाय सहित आत्मा जो कर्मोके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है, उसे बन्ध कहते हैं । बन्धके कारणोंके अभाव और निर्जराके निमित्तसे आत्मासे समस्त कर्मोंके क्षय हो जानेको मोक्ष कहते हैं । इस प्रकार इन नौ पदार्थोंका अच्छी तरह मनन करना चाहिए और दूसरोंको उपदेश देना चाहिए।
शङ्का-अन्य शास्त्रोंमें तो सात पदार्थ बतलाये हैं । यहाँ नौ क्यों कहे हैं ?
समाधान-अन्य शास्त्रोंमें पुण्य और पापका अन्तर्भाव बन्धमें कर लिया गया है । अतः वहाँ सात ही गिनाये हैं। यहाँ पुण्य कर्मों और पाप कर्मोंका भेद बतलानेके लिए उनका पृथक् ग्रहण किया है।
जीवभेदप्रतिपादनायाहजीवोंके भेद बतलाते हैं :