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कारिका १९०-१९१-१९२-१९३] प्रशमरतिप्रकरणम्
१३३ अर्थ-संसारीजीव चर और अचरके भेदसे दो प्रकारके और स्त्री, पुरुष और नपुंसकके भेदसे तीन प्रकारके जानने चाहिए। तथा नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवके भेदसे चार प्रकारके कहे गये हैं।
भावार्थ-तेजकाय, वायुकाय द्वीन्द्रिय वगैरह जंगम प्राणियोंको चर कहते हैं । पृथिवीकाय वगैरह स्थावर प्राणियोंको अचर कहते हैं । संसारीजीवके ये दो भेद हैं । तथा स्त्री वगैरहकी अपेक्षासे तीन भेद हैं और नारकी वगैरहकी अपेक्षासे चार भेद हैं।
पञ्चविधास्त्वकद्वित्रिचतुःपनेन्द्रियाच निर्दिष्टाः ।
क्षित्यम्बुवह्निपवनतरवस्त्रसाश्च षड् भेदाः ॥ १९२ ॥
टीका-पञ्चप्रकारा एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाः कथिताः । भूमिजलवह्निवायुवनस्पतिद्वीन्द्रियादयश्चेति षड् भेदाः ॥ १९२ ।।
अर्थ-एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय-ये पाँच भेद कहे हैं । और पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस-ये छह भेद कहे हैं ।
भावार्थ-संसारीजीवके एकेन्द्रिय वगैरहकी अपेक्षासे पाँच भेद है। और पृथिवी वगैरह छह कायोंकी अपेक्षासे छह भेद हैं।
एवमनेकविधानामेकैको विधिरनन्तपर्यायः ।
प्रोक्तःस्थित्यवगाहज्ञानदर्शनादिपर्यायैः ॥ १९३ ॥
टीका-एवमुक्तेन न्यायेनानेकविधानामनेकभेदानामेकैको विधिमूलभेदोऽनन्त. पर्यायोऽनन्तभेदः कथितः । केन कारणेन स्थितितोऽवगाहतो ज्ञानतो दर्शनतश्च । स्थितितस्तावदनन्तपर्यायः । अनादौ संसारेऽनन्ताः स्थितिपर्यायाः। अवगाहतोऽप्यसंख्येयप्रदेशावगाहे हीनाधिकसमप्रदेशभेदेनावगाहोऽपि वहुप्रकारः । तथा ज्ञानतोऽप्यनन्तपर्यायता दर्शनतश्च । यथोक्तम्- " अणंता णाणपजवा, अणंता दसणपजवा।" एकैको नारकादिभेदो यथासंभवमनन्तपर्यायो भवति ॥ १९३॥
अर्थ-इस प्रकार अनेक भेदोंमेंसे एक-एक मूलभेदके स्थिति, अवगाह, ज्ञान, दर्शन वगैरह पर्यायोंकी अपेक्षासे अनन्त भेद कहे हैं।
भावार्थ-उक्त प्रकारके संसारीजीवोंके अनेक भेद हैं। उन अनेक भेदोंमेंसे भी एक-एक भेदके स्थिति वगैरहकी अपेक्षासे अनन्त भेद हैं। स्थिति एक अन्तर्मुहूर्तसे लेकर तेतीस सागर तक होती