Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 114
________________ कारिका १५१-१५२-१५३ ] प्रशमरतिप्रकरणम् १०५ टीका - जन्म - उत्पत्तिः, जरा वयोहानिः, मरणं प्राणपरित्यागः, एभ्यो भयानि तैः । अभिदुते - अभिभूते । व्याधयो ज्वरातीसारहृद्रोगादयः, वेदनाः शरीरजा मनोभवाश्चः । व्याधिवेदनाग्रस्ते व्याधिवेदनाभिगृहीते, लोके प्राणिसमूहे । जिनवरा जिनप्रधानाः 'तीर्थंकराः' इत्यर्थः । तेषां वचनं वाग्योगस्तत्प्रतिपादितोऽर्थः । तमादाय क्षायोपशमिकभाववर्तिभिर्गणधरैर्द्वन्धं द्वादशाङ्गं प्रवचनम् । तन्मुक्त्वा अन्यत्र नास्ति शरणं त्राणमिति ॥ १५२ ॥ अर्थ – जन्म, जरा और मरणके भयसे व्याप्त तथा रोग और कष्टोंसे भरे हुए इस भगवान् जिनेन्द्रदेवके वचनोंके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है । संसार में भावार्थ - संसार के सभी प्राणियों के ऊपर जीवन-मरण और बुढ़ापेका भय सभी के पीछे रोग और कष्ट लगे हुए हैं । अतः जिनभगवान् के दिव्य उपदेशको सुनकर जो द्वादशाङ्ग श्रुतकी रचना की है, उस श्रुतके सिवाय अन्य कुछ भी यहाँ शरण नहीं है । एकत्वभावनामधिकृत्याह एक भावनाको कहते हैं : एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुभाशुभा भवावतें । तस्मादाकालिकहितमेकेनैवात्मना कार्यम् ॥ १५३ ॥ सवार हैं । गणधर देवों ने टीका - ' एकस्य ' इति असहायस्य जन्म च मरणञ्च । न खल्वस्य जायमानस्य म्रियमाणस्य वा कश्चित् सहायोऽस्ति । गतयो नारकाद्याः । मरणोत्तरकालं नरकादिगतिषु स्वकृत कर्मफलमनुभवतो नास्ति कश्चित्परः । शुभा देवमनुष्यतिर्यग्योनयः, नरकगतिशुभा । भवो जन्म, भव एव आवर्तः संसारार्णवः । यत्र प्रदेशे भ्राम्यदास्ते जलं तत्रैव च आवर्तः । जीवस्यापि तत्र तत्र जन्ममरणे समनुभवतो भवावर्तः । तस्माद् आकालिकम्अकालहीनम् । हितमकेनैवात्मना कार्यम् - हितं संयमानुष्ठानं तत्प्राप्यो वा मोक्षोऽत्यन्तहितम्, एकेन असहायेनात्मना कर्तव्यमिति ॥ १५३ ॥ अर्थ- संसाररूपी भँवरमें पड़ा हुआ यह जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है । और अकेला ही शुभ और अशुभ गतियोंमें जाता है । अतः अकेले ही को अपना स्थायी हित करना चाहिए । भावार्थ - समुद्र में जिस जिस स्थानपर चक्कर खाकर पानी नीचेको जाता है, उसे आवर्त भँवर कहते हैं । संसार - समुद्र में भी जीव जहाँ जहाँ जन्म लेता या मरता है, वह भव- आवर्त कहा जाता है। उस भवरूपी आवर्तमें जीव अकेला ही जन्म लेता है, और अकेला ही मरता है । जन्म लेते और मरते समय उसका कोई भी सहायी नहीं है । मरनेके बाद नरकादि गतियोंमें अपने किये हुए कर्मों के १-णत्यागः-प० । २-णं परित्रा- प० । ३-र्णवे - प०, ब० । ४- म्बदस्ताधजल - फ०, ब० । प्र० १४

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