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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [अष्टमोऽधिकारः, भावना द्वारा पहले बाँधे हुए कर्मोंका क्षय होता है, ऐसा चिन्तन करनेको निर्जराभावना कहते हैं । यह जीव अनादिकालसे ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और मध्य लोकमें भ्रमण करता है, इत्यादि लोकके स्वरूपके विचारनेको लोकविस्तारभावना कहते हैं । भव्य जीवोंके कल्याणके लिए उत्तम क्षमादि दशलक्षणरूप धर्म अच्छा कहा है, ऐसा चिन्तन करना-धर्म-स्वाख्यातभावना है । मनुष्य जन्म, कर्मभूमि, आर्यदेश, कुल, निरोगता और आयुके पानेपर भी सम्यग्ज्ञानका पाना दुर्लभ है, ऐसा विचारनको बोधिदुर्लभ. भावना कहते हैं । इस प्रकार इन बारह भावनाओंका रात-दिन चिन्तन करना चाहिए।
सम्प्रति एकैकया कारिकया भावनामेकैकां कथयति। तत्र प्रथमो भावनाऽनित्यारख्या, तदर्शयन्नाह
___ अब एक एक कारिकासे एक एक भावनाको कहते हैं । उनमें से पहले अनित्यभावनाको कहते हैं :
इष्टजनसंप्रयोगद्धिविषयसुखसम्पदस्तथारोग्यम् ।
देहश्च यौवनं जीवितञ्च सर्वाण्यनित्यानि ।। १५१ ॥
टीका-इष्टेन जनेन सह संयोगोऽनित्यः । ऋद्धिविषयसुखसम्पदः-ऋद्धिः सम्पद विभूतिः, साप्यनित्या । विषयाः शब्दादयः, तजनिता सुखसम्पदनित्या । आरोग्यं नीरोगता, तदप्यनित्यम्, देहः शरीरकुमाहारस्नानपानाच्छादनानुगृहीतम्, एतदप्यनित्यम् । यौवनमपि कतिपयदिवसरमणीयम्, जीवितमप्यकाण्डभगुरम् । एवम् एतत्सर्वमनित्यम्' इति भाव यतो न कचित् स्नेहः समुपजायते । निस्सङ्गश्च मोक्षचिन्तायामेव व्याप्रियत इति ॥ १५१॥
अर्थ-इष्ट जनका संयोग, ऋद्धि, विषय-सुख, सम्पदा, आरोग्य, शरीर, यौवन और जीवन-ये सभी अनित्य हैं।
भावार्थ-प्रिय जनोंका सम्बन्ध अनित्य है । धन-सम्पदा भी अनित्य है । विषय और उनसे होनेवाला सुख भी अनित्य है । नीरोगता भी अनित्य है । खान-पान, स्नान और वस्त्रसे रक्षित शरीर भी अनित्य है । जवानी भी चार दिनकी चाँदनी है । जीवन भी असमयमें ही नष्ट हो जानेवाला है। इस प्रकार इन सबकी अनित्यताका विचार करते रहनेसे किसीसे राग उत्पन्न नहीं होता । अतः रागरहित प्राणी मोक्षकी चिन्तामें ही लगा रहता है ।
अशरणभावनामधिकृत्याहअशरणभावनाको कहते हैं :
जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं कचिल्लोके ।। १५२ ॥
१-म भा-१०।२-संप्रयोगों-प०।३-एतत्स-प०।