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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सप्तमोऽधिकारः, आचारः श्वश्वा श्वस्रा चविज्ञाय तदभिप्रायं सर्वत्र गृहव्यापारे नियुक्ता । प्रातरेव गृहप्रमार्जनगोमुखकरणभाण्डप्रक्षालनाधिश्रयणरन्धनपरिवेषणभाजनमार्जनोपलेपनखण्डनवटैनपादप्रक्षालनाभ्यङ्गनानेककार्यव्यग्रा कृच्छ्रेण निद्रामासादयति । तस्याः सुदूरादेव विटप्रार्थना कथा व्यपेता । साधोरप्याचार-व्यग्रस्य विस्मरत्येवान्या विषयादिकथेति । अतः संयमयोगैरात्मौ निरन्तरं व्यापृतः कार्यः-संयमः सप्तदशभेदः, तद्विषया योगव्यापाराः, तैरात्मा व्यापृतो व्यग्रः कार्य इति ॥ १२०॥
____ अर्थ-पिशाचकी कथा और कुल-वधूके रक्षणको सुनकर आत्माको सर्वथा संयमके पालन करनेमें लगाये रहना चाहिए।
भावार्थ-किसी बनियेने मंत्र-बलसे एक पिशाचको वशमें कर लिया। पिशाचने कहा-मुक्के सदा कोई न कोई काम करनेकी आज्ञा देते रहना चाहिए । जभी मुझे आज्ञा नहीं मिलेगी, तभी मैं आपको मार डालूंगा । बनियेने यह बात मान ली, और उसे घर तैयार करने, उसमें धन-धान्य लाकर रखने तथा सोना-चाँदी वगैरहसे भरपूर करने की आज्ञा दी। पिशाचने उसका पालन किया और फिर
आज्ञा माँगी । बनिये ने कहा-एक खूब लम्बा बाँस लाकर उसे घरके आँगनमें गाढ़ दो और जबतक मैं दूसरी आज्ञा न दूँ तबतक उसपर चढ़ो और उतरो। ऐसा करनेसे पिशाचको कोई ऐसा अवसर नहीं मिल सका, कि वह बनियेके प्राण ले सके । इसी प्रकार जो साधु दिन-रातके अन्दर आचरण करनेके योग्य क्रियाओंके पालनमें तत्पर रहता है, वह कभी भी प्रमाद वगैरहके वशीभूत नहीं होता।
दूसरी कथा एक कुल-वधूकी है । किसी दुराचारीकी दृष्टि एक लावण्यवती सुन्दरीपर पड़ी। उसने उससे संभोगकी प्रार्थना की । वधूने उसे स्वीकार कर लिया। उसकी सासको जब यह बात मालूम हुई तो उसने बहूको घरके काम-धाममें लगा दिया। वेचारी बहू सुबह उठते ही घरमें झाडू देती थी, उसके बाद गायोंको सानी करती थी, उसके बाद बर्तन मलती-धोती थी, फिर रसोई बनाती थी। जब घरके सब लोग भोजन कर लेते थे तो फिर बर्तन मलती थी। घर लीपती थी, धान्य वगैरह कूटती थी, हाथ-पैर धोती थी, सासको तेल लगाती थी । इत्यादि अनेक कामों में दिन-रात लगी रहती थी। रातको सोनेका समय भी कठिनतासे मिल पाता था। इस प्रकार घरके काममें फँस जाने के कारण वह उस दुराचारी मनुष्यकी बात ही भूल गई । इसी प्रकार जो साधु अपने आचारके पालनमें दिन-रात लगा रहता है, उसे विषय वगैरहकी कथा भूल ही जाती है । अतः आत्माको सदैव संयमके व्यापारमें लगाये रखना चाहिए।
'इत्थं विहितक्रियानुष्ठानव्यग्र ऐहिकेषु भोगकारणेषु भावयेदनित्यताम् ' इत्याह
इस प्रकार जो साधु शास्त्रविहित क्रिगओंके पालनमें तत्पर रहता है, उसे इस लोक सम्बन्धी भोगके कारणोंमें अनित्यताका विचार करना चाहिए, यह कहते हैं :
१-संभाज-प०। २-छंटन पा-मु०। ३-त्मा व्या-फ००। ४-व्यावृतो-१०।