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फारिका १४२-१४३-१४४-१४५ ] प्रशमरतिप्रकरणम् योर्भवति । यद्ववस्तु, आहारोपधिशय्यादि । निश्चये व्यवहारे वा। उत्सर्गो निश्चयो विधिः, अपवादो व्यवहारो विधिः । तत्कल्प्यम् । यस्मानिश्चये व्यवहारे ज्ञानादीनामुपग्रहकारि दोषाणां च निग्रहकारि यद्वस्तु तत् कल्पनीयमवशिष्टमिति ॥ १४३ ।।
___ अर्थ-यतः जो वस्तु ज्ञान, शील, और तपको बढ़ाती है और दोषों को दूर करती है वह निश्चयसे कल्प्य है और बाकी सब अकल्प्य है ।
भावार्थ-व्यवहारमें जो आहारादि वस्तु श्रुज्ञान, मूलगुण, उत्तरगुण और तपको बढ़ाती हो, भूख-प्यास अथवा राग-द्वेष वगैरह दोषों को दूर करती हो, वही साधुके ग्रहण करने योग्य है। किन्तु जिसके सेवनसे धर्माराधनमें प्रमाद हो और काम-क्रोवादिका विकार उत्पन्न होते हों, वह अग्राह्य है।
एनमेवार्थ स्पष्टयतिउसी बातको ही स्पष्ट करते हैं:
यत्पुनरुपघातकरं सम्यक्त्वज्ञानशीलयोगानाम् ।
तत्कल्प्यमप्यकल्प्यं प्रवचनकुत्साकरं यच्च ॥ १४४ ॥ टीका-उपघातो विनाशः, तं करोति यद्वस्तु आहारादि ग्रह्यमाणं प्रत्युतोपहन्ति सम्यग्दर्शनम्, सम्यग्ज्ञानमागमारव्यम्, शीलं मूलगुणी उत्तरगुणाश्व, योगा मनोवाक्कायाख्याः अहर्निशाभ्यन्तरानुष्ठेया वा व्यापारा योगाः । तदुपघातकारित्वात् कल्प्यमपि सदकल्प्यमेव दृष्टव्यम् । प्रववनकुत्साकरं यच्च-यच्च प्रवचनकुत्साकर कुत्सां निन्दा गहीं करोति यत्तत्सर्वमकल्पनीयं मांसमद्यादि अभोज्यादि कुलेषु भक्तपानादिग्रहणं सर्वमेव प्रवचनकुत्साकारि भवत्यकल्प्यमिति ॥ १४४ ॥
अर्थ- जो वस्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और दिन-रातमें की जानेवाली क्रियाओंको नष्ट करती है, तथा जिससे जिन-शासनकी निन्दा होती है, वह वस्तु कल्प्य होनेपर भी अकल्प्य है।
भावार्थ-जिप्त वस्तुसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रमें बाधा उपस्थित होती है, दैनिक समीचीन क्रियाओंको क्षति पहुँचती है और जिसके उपयोगसे जैनेन्द्र-शासन कलङ्कित होता है, वह वस्तु अकल्प्य ही मानी जानी चाहिए।
किञ्चिच्छुद्धं कल्प्यमकल्प्यं स्यात्स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भेषजाद्यं वा ॥ १४५ ॥
१-एतमे-प०। २-गुणोत्तर-फ०, प०। ३-करं निन्दा गर्दा तां करोति यत्सर्व-फ।