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रायचन्द्रजैनशाखमालायाम् [अष्टमोऽधिकारः, भावना 'जे जहिं दुगुंछियो खलु पम्वावणवसहि भत्तपाणेसु ।
जिणवयणे पडिकुट्ठा वजेजे तहा पयत्तेण ॥ १॥' यच्च लोकैकदेशेऽविरुद्धं मधुमांसलसुनवीजानन्तकायादि धर्मसाधनविरुद्धमने तदपि परिहार्यमिति ॥ १३१ ॥
अर्थ-यतः लोक सभी संयमियोंका आधार है । अतः लोकविरुद्ध और धर्मविरुद्ध कार्योंको छोड़ देना चाहिए।
भावार्थ-सभी संयमी लोकमें ही निवास करते है । अतः जो काम लोकविरुद्ध हैं, जैसेजन्म मरणके सूतकवाले और जाति बहिष्कृत वगैरह घरोंमें भिक्षा लेना, न करना चाहिए । तथा जो कार्य धर्मविरुद्ध हैं, जैसे मदिरा, मांस, लहसुन, और अनन्तकाय वनस्पतिका भक्षण वगैरह, उन्हें भी, न करना चाहिए। • ' इतश्च लोकवान्वेिषणे श्रेयोहेतुः' इति दर्शयतिअव लोक-वार्ताको कल्याणकारी बतलाते हैं:
देहो नासाधनको लोकाधीनानि साधनान्यस्य ।
सद्धर्मानुपरोधात्तस्माल्लोकोऽभिगमनीयः ॥ १३२॥
टीका-शरीरमाचं खलु धर्मसाधनम् । तस्य च देहस्याहारोपधिशय्याः साधनम्, साधनरहितस्य देहस्यासंभव एव । तानि चास्य साधनानि लोकाधीनानि लोकायत्तानि भवन्ति । अतः किम् ? सद्धर्मानुपरोधात्-सद्धर्मस्य क्षमादेरविरोधात् , लोकोऽभिगमनीयः-'लोकवार्तान्वेषणमेवमर्थ करणीयम् ' इति ॥ १३२ ॥
अर्थ-साधनके विना शरीर नहीं रह सकता। और उसके साधन लोकके आधीन हैं। अतः समीचीन धर्मके अविरुद्ध लोकका अनुसरण करना चाहिए।
भावार्थ-धर्म-साधनका प्रधान शरीर है । और शरीरके साधन भोजन वगैरहके विना शरीरका टिकना असंभव ही है। किन्तु वे सभी साधन लोकके आधीन हैं । अतः लोक-वार्ता करनी चाहिए; किन्तु इतना ध्यान रखना चाहिए कि वह लोक-वार्ता धर्मके विरुद्ध न हो।
'पर एवोपदेष्टा भवति गुणदोषयोः' इत्याहदोष और गुणकी शिक्षा लोकसे ही लेनी चाहिए, यह बतलाते हैं:
दोषेणानुपकारी भवति परो येन येन विद्वेष्टि । स्वयमपि तद्दोषपदं सदा प्रयत्नेन परिहार्यम् ॥ १३३ ॥
१-छिदाख-फ०, ब०। २-बजेयव्वा प-प। ३-शे विरु-फ०, ब०। ४-विद्विष्टः-१०, फ०, ब०।