Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 11
________________ अग्नि और जीवत्वशक्ति -आचार्य विद्यानन्द मुनि सामान्यत: तो लोग अग्नि के नाम से ही डरते हैं, और उसे दूर से ही हाथ जोड़ते हैं। किन्तु यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि अग्नि हमारे लौकिक जीवन का अविभाज्य अंग है, तथा इसके बिना हमारे सांसारिक कार्य चल नहीं सकते हैं। फिर भी अग्नि को जीव के रूप में जैसी विशिष्ट प्ररूपणा इस अनुपम आलेख में प्राप्त होती है, वैसी प्ररूपणा अन्यत्र अत्यंत दुर्लभ है। जैसे जल का स्वभाव अधोगमन है, वायु का स्वभाव तिर्यग्गमन है तथा अग्नि का स्वभाव ऊर्ध्वगमन है— इस बारे में किसी को कोई विरोध नहीं है; इसीप्रकार इस आलेख में अग्नि की जीवत्वशक्ति को भी अविरोधीरूप में अत्यंत प्रभावी रीति से सिद्ध किया गया है। आज के भौतिकतावादी भले ही इस तथ्य को माने या नहीं मानें, किन्तु यह आलेख न केवल अग्नि की जीवत्वशक्ति प्रमाणित करता है; अपितु भारतीय परम्परा में अग्नि को किसी न किसी रूप में जो पूजा, आराधना या आदरभाव दिया जाता रहा है, उसकी तार्किकता भी सिद्ध करता है। साथ ही ज्ञान एवं साधना के शिखर पर विराजमान एक अद्वितीय मनीषी साधक की लेखनी से प्रसूत होने के कारण इसकी महत्ता स्वत: प्रमाणित हो जाती है। आशा है 'प्राकृतविद्या' के जिज्ञासु पाठकों के लिये यह आलेख पर्याप्त परिमाण में ज्ञानभोजन प्रस्तुत करेगा। –सम्पादक प्राणवायु और जल की तरह ‘अग्नि' भी प्राणियों के जीवन का अविभाज्य अंग है। हिमयुग की परिकल्पना से अग्नितत्त्व ही जीवन के प्रति आस्था एवं आत्मबल प्रदान करता है। भारतीय चिन्तन में अग्नि को पंचमहाभूतों के एक अंग के रूप में शाश्वत प्राकृतिक भौतिक तत्त्व माना गया है, किन्तु पारदृश्वा ऋषियों-मुनियों ने अपनी सूक्ष्मप्रज्ञा के द्वारा चिरकाल से यह प्रतिपादित किया कि 'अग्नि में जीवत्वशक्ति' है। इसे वैज्ञानिक तथ्य के रूप में आधुनिक वैज्ञानिक भले ही प्रतिपादित और सिद्ध नहीं कर पाये हों, किन्तु यह एक ज्वलन्त सत्य है। मैं अपने अध्ययन और अनुसन्धान से प्राप्त तथ्यों के आधार पर इस बात की सप्रमाण पुष्टि करने की चेष्टा इस आलेख में करूँगा। अग्नि की खोज प्राकृतिक रूप में तो 'अग्नि' पाँच रूपों में सर्वत्र विद्यमान मानी गयी है-1. दावाग्नि, प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 009

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