Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 70
________________ अर्थभेद रखता है। यह नितान्त शब्दभेद एवं अर्थभेद की दृष्टि से विचारणीय है। जिसके लिए संस्कृत छायाकार ही उत्तरदायी हैं। क्योंकि उन्होंने पाठकों व छात्रों को ऐसे पदों का प्रयोगकर पूर्णत: दिग्भ्रमित कर दिया है। 2 व्याकरणिक दोष प्राकृत के मूलपाठों में जो रूप (शब्दरूप या धातुरूप आदि) की दृष्टि से पाठ होते हैं। कभी-कभी ढाँचागत भेद होने के कारण संस्कृत में उनका स्वरूप बदलता ही है। यथा— प्राकृत में द्विवचन का अभाव होने से दो' के लिए ही बहुवचन का प्रयोग होता है। जबकि संस्कृत में उसके लिए द्विवचन का प्रयोग किया जाना ही उचित है। इसीप्रकार प्राकृत में चतुर्थी' के स्थान पर 'षष्ठी' विभक्ति का प्रयोग होने से भी उसकी संस्कृत छाया में चतुर्थी' का ही रूप दिया जाना संस्कृत के अनुरूप है। अनुरूप स्थितियाँ धातुरूपों के प्रयोगों में भी पायी जाती हैं। __ ये प्रक्रियायें यद्यपि संस्कृत के व्याकरणिक ढाँचे के अनुरूप हैं, किन्तु इससे प्राकृतभाषा में द्विवचन' एवं चतुर्थी' के रूपों के अस्तित्व का भ्रम होता है। क्योंकि पाठकगण व छात्र तो संस्कृतछाया के आधार पर ही प्राकृत का निर्णय करेंगे। मूल प्राकृत को पढ़ने-पढ़ाने की तो परम्परा ही संस्कृत-छायाकरण की प्रवृत्ति ने नष्ट कर दी है। साथ ही कहीं-कहीं प्राकृत मूलपाठों की संस्कृत छाया बनाने में व्याकरणिक दृष्टि से भी दोष आ जाते हैं। यथा— महूसवो > महोत्सवे पाठ में 'प्रथमा' के स्थान पर संस्कृत-छाया में 'सप्तमी' विभक्ति का प्रयोग हो गया है। इसीप्रकार कर्पूरमंजरी' सट्टक में 'मए' की संस्कृत-छाया 'माम के रूप में दी गयी है। जो कि ततीया' विभक्ति के स्थान पर द्वितीया' विभक्ति का प्रयोग है। इसीप्रकार कर्पूरमंजरी' में लंकागिरिमेहलाहिं' इस तृतीया-बहुवचनान्त प्रयोग की जगह 'लंकागिरिमेखलायां' यह सप्तमी-एकवचनान्त का प्रयोग संस्कृत छायाकार ने दिया है। 3. शब्दभेद ___प्राकृत के मूल शब्द संस्कृत-छायाकारों ने मनमर्जी से बदलकर उनके स्थान पर उससे मिलते-जुलते अर्थ वाले भिन्न शब्दों का प्रयोग कर उसका संस्कृत-छाया नामकरण भी दूषित कर दिया है। उदाहरणस्वरूप कर्पूरमंजरी' आठवें पद्य में “परुसा सक्कयबंधा पाउअबंधो वि होइ सुउमारो" की संस्कृत-छाया में “परुषा संस्कृतगुम्फा प्राकृतगुम्फोऽपि भवति सुकुमारः” —ऐसा प्रयोगकर बंध' शब्द के स्थान पर 'गुम्फ' शब्द का प्रयोग किया गया है, जबकि संस्कृत में भी बंध' पद का प्रयोग सुसंगत हैं। इसीप्रकार कर्परमंजरी' में 'आवज्ज इस प्राकृत पाठ के लिए 'आवेग यह संस्कृत छाया दी गयी है। इसमें तुकान्तता भले ही प्रतीत होती है, किन्तु यह स्पष्टरूप से शब्दभेद भी हैं; जो कि अर्थभेद का प्रदर्शन भी करता है। 068 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000

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