Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 82
________________ की भाषा भी पृथक है। ऐसा कथन करने के बाद भी क्षेत्रीयता ने अपना स्थान नहीं बना पाया होगा। इसलिए कुछेक परिवर्तनों के कारण यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का भाषा-दृष्टि से भेद हुआ; पर क्षेत्र की दृष्टि से भेद नहीं होने के कारण इन सभी वेदों की भाषा को 'छान्दस्' कहा गया। शौरसेनी साहित्य के प्राचीनतम रूप के विषय में करने की आवश्यकता नहीं। क्योंकि जो कुछ भी आगमों में सुरक्षित है, वह जब क्षेत्रीय दृष्टि से प्रमाणित किया गया, तो यही कहा गया कि शौरसेनी आगम साहित्य शूरसेन, मथुरा आदि के आसपास के क्षेत्रों की क्षेत्रीयता को किए हुए है। इसका प्रचार पूर्व, पश्चिम और दक्षिण भारत में सर्वत्र था। नाटकों में भी शौरसेनी भाषा का प्रयोग अधिक से अधिक हुआ है। महाकवि कालिदास के ही एकमात्र नाटक 'शाकुन्तलम्' को आधार बनाकर यदि मूल्यांकन किया जाये, तो राजा, मंत्री एवं पुराहित को छोड़कर अन्य जितने भी पुरुष पात्र, स्त्री-पात्र एवं बालक शौरसेनी का ही प्रयोग करते हैं। कालिदास के नाटक के गद्यांशों की समीक्षा की जाये. तो यह भी स्पष्ट होता है कि उन्होंने शौरसेनी के 80 से 85% प्रयोग किये है। प्राय: यह देखा गया है कि नाटककार 'नाट्यशास्त्र' के नियम से जुड़कर ही भाषाओं को महत्त्व देता है। पात्रों के अनुसार भाषा-प्रयोग अभिनय की एक कला है। जिस कला को हर युग: में स्थापित किया गया। दो हजार वर्ष के बाद भी नाटककार यदि संस्कृति में नाटक प्रस्तुत करता है, तो उसे पात्रों के अनुसार भाषा का प्रयोग करना पड़ेगा। आज हिन्दी भाषा है, उसमें भी आंचलिकता का समावेश किया जाता है, तभी वह अपने स्वरूप को स्थान दे पाती है। ___ शौरसेनी प्राकृत की दृष्टि एक भाषिक दृष्टि है। जिनवाणी भारतीय भाषा की गरिमा है। इसी भाषा के दिगम्बर आम्नाय में प्रचलित प्राकृत के सभी ग्रन्थ इस बात का प्रमाण देते हैं कि भाषा की विविधता तो हो सकती है, पर साहित्य-प्रयोग की एकरूपता 'छक्खंडागमसुत्त' से लेकर आज तक उसी रूप में विद्यमान है। पहली शताब्दी का कवि जिस शौरसेनी में रचना करता है, वही शौरसेनी कुन्दकुन्द, यतिवृषभ आदि की है। नवमी शताब्दी के कवियों की है। 14वीं शताब्दी एवं इस बीसवीं शताब्दी में भी दिगम्बर आम्नाय का माननेवाला सर्वज्ञ वाणी को यदि काव्यात्मक रूप देना चाहेगा. तो वह शौरसेनी को नहीं भूल सकता है। जिनवाणी की भाषा कोई भी हो सकती है, पर समयानुसार किसे महत्त्व दिया गया, यह विशेष महत्त्व रखता है। 'छक्खंडागमसुत्त' आदि एवं तत्त्वार्थसूत्र' आदि जिनवचन हैं। सेवा धर्म-समाज की, आगम के अनुकूल। यह पुनीत उद्देश्य है, जैनधर्म का मूल।। 00 80 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000

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