Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 80
________________ परिवारों से शौरसेनी, अर्द्धमागधी आदि प्राकृतों का विशेष संबंध है। भाषावैज्ञानिकों ने इसका भी क्षेत्रीय दृष्टिकोण ध्यान में रखते हुए भारतीय आर्यभाषा के परिवार को 'आर्यशाखा परिवार' से संबंध बतलाकर सृजनशीलता की अपेक्षा तीन युगों में विभक्त किया है। प्राचीन भारतीय आर्यभाषाकाल - (1600 ई०पू० – 600 ई०पू०) मध्यकालीन आर्यभाषाकाल - (600 ई०पू० - 1000 ई०) आधुनिक आर्यभाषाकाल - (ई० 1000 – वर्तमान समय) 1.प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल :- वेदों के रूप में भाषा का प्रवाह जिस गति से प्रवाहित हुआ, वह आज भी विद्यमान है। इनकी ऋचाओं में पावन अमृत है। इनके अर्थ में गाम्भीर्य है और भावों में प्रकृति का सर्वस्व निहित है। उनकी प्रकृति, आकृति सदैव एक-सी नहीं रही, बदलती रही; परिवर्तन हुए, परन्तु भाषा, भाव और प्रक्रिया के नियम उन्हें सुरक्षा प्रदान करते रहे हैं। भारतीय आर्यभाषा के साहित्य-क्षितिज पर वेदों का नाम जिस रूप में लिया जाता है, वह 'भारतीय आर्य शाखा परिवार' का गौरव बढ़ाता है। आर्य-साहित्य का सर्वाधिक प्राचीन ऋग्वेद है, यह सभी मानते हैं। जहाँ 'ऋग्वेद' विश्वसाहित्य का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है, वहीं आर्य-शाखा के परिवार में आर्ष-वचन के मौलिक स्वरूप का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। आर्ष-वचन ऋषि-मुनियों के वचन हैं, वे आर्य-शाखा के विकास का यशोगान करते हैं। 'ऋग्वेद' में आर्यभाषा का जो रूप पाया जाता है, वैसा शेष यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद में नहीं पाया जाता। 'ऋग्वेद' की भाषा का साम्य अन्य वेदों से पृथक् है। जिस भाषा में वेद रचे गये, वे वैदिक भाषा के साहित्यिक स्वरूप को व्यक्त करते हैं। बौद्धिक चिन्तन के आधार पर इस भारतीय साहित्य को 'छान्दस्' भी कहा गया है; क्योंकि इसमें आर्यों की संस्कृति, यज्ञ-विधान, यजन-पूजन, भावाभिव्यंजना, उपासना, आराधना आदि के जो संकेत दिये गये हैं, वे भारतीय आर्यशाखा को पुष्ट करते हैं। आर्यशाखा के आर्यभाषा में 'छान्दस्' उस समय की साहित्यिक निधि थी। जो जनभाषा का परिष्कृत रूप है। जनभाषा या जनता की बोलचाल की भाषा प्राकृत की प्रकृति का मूल उद्घोष है। यह जनसाधारण से जुड़ी हुई जनता की बोली है। जिसमें मूलतत्त्व को महत्त्व दिया गया। इसके साम्य और वैषम्य के कारण इसका स्वरूप निर्धारित किया गया। उच्चारण-भेद के कारण 'ऋग्वेद' आदि की 'छान्दस्' और 'प्राकृत' में अंतर है। परन्तु इसकी लिपि, आकार-प्रकार, तद्भव-शब्द या तत्सम-शब्दावली के आधार पर 'छान्दस्' और 'प्राकृत' दोनों को सहोदरा भी कहा गया। आर्यों की संस्कृति वेदों मात्र में ही नहीं है, अपितु शौरसेनी एवं अर्धमागधी के सूत्रों में भी है। बुद्ध के वचन त्रिपिटक' के रूप में सूत्रबद्ध 1078 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर 2000

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