Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 99
________________ पुस्तक का नाम : प्रवचनसार की अशेष प्राकृत-संस्कृत शब्दानुक्रमणिका संकलक : डॉ० के०आर० चन्द्र, शोभना आर० शाह' प्रकाशक : प्राकृत टैक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद संस्करण : प्रथम, 2000 ई० मूल्य : 60/- (डिमाई साईज़, पेपर बैक, लगभग 65 पृष्ठ) ___ आचार्य कुन्दकुन्दप्रणीत 'पवयणसार' (प्रवचनसार) नामक ग्रन्थ भारतीय दर्शनशास्त्र में अप्रतिम स्थान रखता है। शौरसेनी प्राकृतभाषा में निबद्ध यह ग्रन्थ दार्शनिक, साहित्यिक एवं भाषिक —तीनों दृष्टियों से विशेष उल्लेखनीय है। इस ग्रंथ पर प्रो० ए०एन० उपाध्ये जैसे महनीय विद्वानों ने गम्भीर शोधकार्य करके महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। बाद में और भी कई विद्वानों ने अनेक दृष्टियों से इस पर अपनी लेखनी चलाई है। दार्शनिक जगत् के साथ-साथ प्राच्य भारतीय विद्याविदों में भी यह पर्याप्त चर्चित ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की शब्दानुक्रमणिका इस कृति के रूप में प्रकाशित हुई है, जोकि प्रवचनसार के किसी प्राचीन संस्करण के परिशिष्ट की भाँति प्रतीत होती है। आधुनिक शोध-विधि के शोधार्थियों के लिये यह प्रकाशन उपयोगी हो सकता है। सम्पादक ** (5) पुस्तक का नाम : अपभ्रंश काव्य की लोकोक्तियों और मुहावरों का हिन्दी पर प्रभाव लेखिका : डॉ० अलका प्रचण्डिया प्रकाशक : तारामण्डल, अलीगढ़ (उ०प्र०) संस्करण : प्रथम, 2001 ई० मूल्य : 250/- (डिमाई साईज़, गते की पेपर बैक जिल्द, लगभग 260 पृष्ठ) प्राकृतभाषा की लाड़ली दुहिता अपभ्रंश अपने आप में प्राकृत के शब्दसम्पत्ति एवं संस्कार से समृद्ध उपयोगी भारतीय भाषा है, जिससे आधुनिक हिन्दी भाषा विकसित हुई है। साहित्यिक अपभ्रंश का विकास विद्वानों ने स्पष्टरूप से शौरसेनी प्राकृत से माना है। अत: शौरसेनी प्राकृत के शब्द-भण्डार, शैली वैशिष्ट्य एवं प्रयोगों का अनुशीलन अपभ्रंश-साहित्य के द्वारा भली-भाँति किया जा सकता है। साथ ही हिन्दी का विकास इसी अपभ्रंश भाषा के द्वारा होने से हिन्दी भाषा में भी अपभ्रंश के बहुविध प्रयोग स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। परम्परित लोकोक्तियों एवं मुहावरों की अपभ्रंश से लेकर हिन्दी तक की यात्रा का लेखा-जोखा इस शोधप्रबन्धात्मक कृति में विदुषी लेखिका ने श्रमपूर्वक प्रस्तुत किया है। इसप्रकार यह कृति प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी — इन तीनों भाषाओं के जिज्ञासु पाठकों एवं शोधार्थियों के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकती है। -सम्पादक ** प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 0097

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