Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 103
________________ विशेषता है। पत्र की सूचना अपेक्षित है। मदनमोहन वर्मा, ग्वालियर, (म०प्र०) ** ० 'प्राकृतविद्या' के अंक पिछले एक वर्ष से प्राप्त हो रहे हैं, आभार । सम्पादन/लेख सभी सामग्री संग्राह्य है। आपके द्वारा भेजी गयी पत्रिका के प्रत्येक पृष्ठ/पंक्ति को मैं बहुत मनोयोग से पढ़ता हूँ। -पं० विष्णुकान्त शुक्ल, सहारनपुर, (उ०प्र०) ** ० 'प्राकृतविद्या' का नवीनतम अंक प्राप्त हुआ। कलेवर की समृद्धता से मन प्रसन्न हो गया। आपकी निखरी शैली के दिग्दर्शन प्रत्येक आलेख के सम्पादकीय में होते हैं। -डॉ० जिनेन्द्र जैन, लाडनूं (राज.) ** ● 'प्राकृतविद्या' को मैं नियमित रूप से मन लगाकर पढ़ता हूँ। इसके प्रतिपाद्य विषय तो अत्यधिक सारगर्भित होते ही हैं, किन्तु मुझे इसकी शैली विशेषत: आकर्षित करती है। मुख्यरूप से आपके संपादकीय लेख एवं अन्य लेख यह सक्षम रीति से प्रमाणित करते हैं कि . साहित्यिक भाषा में भी भरपूर आकर्षण होता है। अभी तक मैं यह समझता था कि मात्र सरलभाषा ही चित्त को आकर्षित करती है, किन्तु प्राकृतविद्या' में आपकी लेखनी ने यह प्रमाणित कर दिया कि साहित्यिक भाषा में भी भरपूर लालित्य एवं लोकाकर्षण होता है। -अशोक बड़जात्या, इंदौर (म०प्र०) ** विद्याध्ययन की विधि "ततोऽस्य पञ्चमे वर्षे प्रथमतरदर्शने, ज्ञेय: क्रियाविधिर्नाम्ना लिपिसंख्यानसंग्रहः । यथाविभवमत्रापि ज्ञेय: पूजापरिच्छदः, उपाध्यायपदे चास्य मतोऽधीती गृहव्रती।। -(आचार्य जिनसेन, आदिपुराण, 38/248) अर्थ :- तदनन्द पाँचवें वर्ष में कोमलमति बालक को सर्वप्रथम अक्षरों का दर्शन कराने के लिए लिपि 'संख्यान' नाम की क्रिया की विधि की जाती है। __ इस क्रिया में भी अपने वैभव के अनुसार सरस्वती-पूजा आदि की सामग्री जुटानी चाहिये और अध्ययन करने में कुशल चारित्रवान् गृहस्थाचार्य को ही उस बालक के उपाध्याय (अध्यापक) के पद पर नियुक्त करना चाहिये। स वृत्तचूलश्चलकाकपक्षकैरमात्यपुत्रैः सवयोभिरन्वित:। लिपेर्यथावद्ग्रहणेन वाङ्मये नदीमुखेनेव समुद्रमाविशत् ।। -(रघुवंश, 3/28) अर्थ :- महाराज अयोध्यापति दिलीप ने अपने आत्मज कुमार रघु का यथाविधि चूडाकर्म (गर्भकेश-मुण्डन) संस्कार किया। वह कुमार शिर पर नये निकले मसृणमदुल श्यामकेशों से (जिन्हें कौवे के पंखों जैसा कृष्ण होने से काकपक्ष कहते हैं) शोभायमान अपने समान तुल्यरूप-वय: मंत्रिपुत्रों के साथ गुरुकुल में जाने लगा। वहाँ उसने स्वरव्यञ्जनात्मिका लिपि का ज्ञान प्राप्त किया, जिससे उसे शब्द-वाक्यादिरूप आरम्भिक वाङ्मय में प्रवेश करना उसीप्रकार सरल हो गया, जैसे नदी में बहकर आनेवाले किसी मकरादि जलचर पशु को समुद्र-प्रवेश सुलभ हो जाता है। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 10 101

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