Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 93
________________ आलोचनात्मक इतिहास, पृ० क्रमश: 44, 45, 46-47, 48-49, 42-43 । 6. सन्दर्भ सं० 14, 16, 18, 19, 20, 21, 22, 30 नेमिचन्द्र शास्त्री, 'प्राकृतभाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास', पृ० क्रमश: 2, 10,5, 10, 5, 14,44,101 7. सन्दर्भ सं० 17 पुरुषोत्तम प्रसाद आसोपा, 'आदिकाल की भूमिका', पृ० 13। 8. सन्दर्भ सं० 24 वीरेन्द्र श्रीवास्तव, 'अपभ्रंश भाषा का अध्ययन', पृ० 5। 9. सन्दर्भ सं० 25, 29 डॉ० शम्भूनाथ पाण्डेय, 'अपभ्रंश और अवहट्ट' : एक अतयात्रा, पृ० क्रमश: 21-22,41 10. सन्दर्भ सं0 31, 32 डॉ० देवेन्द्र कुमार जैन, रिट्ठणेमिचरिउ' प्राक्कथन, पृ०सं० क्रमश: 10, 11, 12। 11. सन्दर्भ सं० 33, 34 राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा', अवतरणिका, पृ० 12, प्रारम्भ में मुख्य पृष्ठ। गाचा छंद एवं उसकी पठन-विधि . आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रंथ गाथा छंद में रचे हैं, जिसे संस्कृत में आर्या छन्द भी कहते हैं। इसमें प्रथम चरण में बारह, द्वितीय चरण में अट्ठारह, तृतीय चरण में पुन: बारह तथा चतुर्थ चरण में पन्द्रह मात्रायें होती हैं। इसी परिमाण में यह छंद लिखा जाता है और उसे 'आर्या भार्याप्रिया' के अनुसार स्त्रियों के लिये प्रिय छंद माना गया है। जैसे स्त्रियाँ कोमल स्वभाव की होती हैं, उसीप्रकार यह छंद भी कोमलकान्त पदावली से युक्त एवं आसानी से गाने योग्य होता है। इस छंद को गाने के बारे में शास्त्रों में दिशानिर्देश दिये गये हैं, उनके अनुसार इस छंद की पहली बारह मात्रायें हंस पक्षी की चाल में पढ़ी जानी चाहिये, दूसरे चरण की अट्ठारह मात्रायें जैसे सिंह दहाड़ता हो ऐसे जोश में पढ़ी जानी चाहियें; इसके बाद की बारह मात्राओं को हाथी जैसी गम्भीर चाल में पढ़ना चाहिये तथा अंत की पन्द्रह मात्राओं को सर्प के समान चाल में पढ़ना चाहिये। इन सब प्रतीकों का बहुत मार्मिक अर्थ भी छन्द:शास्त्रियों ने प्रतिपादित किया है, वे लिखते हैं कि हंस पक्षी नीर-क्षीर-विवेक का प्रतीक होता है अत: भेदविज्ञानपरक दृष्टि से प्रथम चरण की बारह मात्रायें पढ़नी चाहिये। भेदविज्ञान दृष्टि मिलने के बाद व्यक्ति में पुरुषार्थ की प्रधानता आ जाती है, अत: सिंह के समान शूरवीर होकर दूसरे चरण की अट्ठारह मात्रायें पढ़ना चाहिये। इसके बाद व्यक्ति में गम्भीरता आ जाना स्वाभाविक है, अत: दूसरों के आक्षेपों से अप्रभावित हाथी के समान मदमस्त चाल में तीसरे चरण की बारह मात्रायें पढ़ी जानी चाहिये और सर्प की चाल इस बात का प्रतीक है कि वह सारी दुनिया में टेढ़ा-मेढ़ा भले ही चलता है, किन्तु अपने बिल में वह सीधा होकर ही प्रवेश करता है। इसीप्रकार इस छंद का चतुर्थ चरण कुटिलवृत्ति छोड़कर सरलवृत्ति के द्वारा आत्मध्यान की भावना से पढ़ा जाना चाहिये। ** प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर 2000 0091

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