Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 81
________________ हैं। उनमें भी आर्य-संस्कृति का सार विद्यमान है। अत: भाषा की विकसनशील शक्ति के कारण 'छान्दस्' एवं 'प्राकृत' ये दो रूप प्रसिद्ध हुए। 'प्राकृत' को सर्वप्रथम 'आर्ष' कहा गया। आचार्यों ने आर्ष को महत्त्व दिया उसे परिष्कृत एवं परिमार्जित भी किया। भारतीय जनजीवन से जुड़ी हुई जनता की जनभाषा में जो कुछ कहा गया, उसे 'आर्ष' कहा गया और फिर आर्ष वचन को क्षेत्रीय दृष्टि से नापा-तोला गया। जिसके परिणामस्वरूप विविध प्रकार के भाषागत भेद प्रकट हुए; जो जनता के बोलचाल की भाषा थी. उसमें परिवर्तन के तत्त्व देखे गये। इसी के परिणामस्वरूप छान्दस् भाषा, प्राकृतभाषा आदि नाम दिया गया। छान्दस् भाषा का एक ही स्वरूप नहीं है; परन्तु जो कुछ भी वेदों में कहा गया उसे वैदिक युग के रूप में स्वीकार करके छान्दस् भाषा कहा गया। यह प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का प्रमुख भेद है। वैदिक युग की भाषा में वैभाषिक प्रवृत्तियों का संकेत प्राप्त होता है, जो उस समय के लोकभाषा के तत्त्व थे। ____भाषा के विकास में आर्ष प्राकृत का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। बुद्ध और महावीर के वचन आर्ष वचन है। इन दोनों के वचनों के सार आगम' और पिटक' रूप में उपलब्ध हैं। उसको भारतीय भाषा-परिवार के लिए महत्त्वपूर्ण माना गया है भाषा की दृष्टि से आर्षवचन का जो विभाजन भाषावैज्ञानिकों ने किया उसमें क्षेत्रीयता एवं कुछ स्थान परिवर्तन अवश्य निर्धारित किये हैं। भारतीय जनजीवन में निषाद, द्रविड़, किरात और आर्य —इन चार जातियों का स्थान भी रहा। यदि आर्य की दृष्टि से विचार करते हैं, तो भारतीय आर्यभाषा परिवार के विशालरूप में प्राकृत भाषाओं का विशालतम क्षेत्र भी विद्यमान है। शौरसेनी प्राकृत ही मूल प्राकृत है भाषा का स्वरूप इस बात का साक्षी है कि वचन-व्यवहार या भावों का आदान-प्रदान जैसे-जैसे खुलता गया, वैसे-वैसे भाषा का स्वरूप स्पष्ट होता गया। भाषा के प्रयोग स्थान-विशेष के कारण या विभिन्न संपर्क के प्रभाव से क्षेत्रीयता को प्राप्त कर लेती है। नवीन स्थान की जलवायु एवं प्राकृतिक परिस्थितियाँ विचारधारा में जो परिवर्तन लाते हैं, वे ही परिवर्तन भाषा के परिवर्तन बन जाते हैं। जनभाषा का साहित्यिक प्रवाह बढ़ता है। तब वही आकार-प्रकार के परिवर्तन के साथ-साथ अपने नियम भी छोड़ देती है। आकार-प्रकार, नियम, भाषा, भाव और प्रक्रिया सभी कुछ देखकर ही भाषावैज्ञानिक नामकरण करता है। यही नामकरण 'शौरसेनी' को शूरसेन प्रदेश में विकसित होने के कारण ही नहीं, अपितु इसके विशालतम साहित्य और प्राचीनतम प्रयोगों के कारण 'शौरसेनी' नाम दिया गया। वेदांग की भाषा का ऐसा विभाजन इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि इसमें परिवर्तन तो हैं; पर सूत्र की एकरूपता, भावों की विशेषता एवं वेदों की प्राचीनता के कारण इन्हें छान्दस्' तो कहा गया; पर 'ऋग्वेद' की भाषा पृथक् है, तथा 'यजुर्वेद' प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 0079

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