Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 77
________________ वहाँ पूर्ववर्ती स्वर को हस्व रखा है तथा जहाँ उसका लोप इष्ट था, वहाँ पूर्ववर्ती स्वर को प्राकृत के नियमानुसार दीर्घ कर दिया है। हलन्त अनुनासिकों को सर्वत्र स्वरान्त बना दिया है। (ब) प्राकृत में नो ण: सर्वत्र:' के नियमानुसार णत्व का विधान है। फिर भी चूँकि उस समय 'न' एवं 'ण' —दोनों वर्गों के लिए प्राय: एक जैसी ही आकृति का प्रयोग होता था, अत: पाठ-सम्पादकों ने उसे 'न' ही पढ़ा, जबकि प्राकृत के अनुसार उसे 'ण' पढ़ा जाना चाहिए। (स) इसी क्रम में 'र' के स्थान पर 'ल' का प्रयोग पूर्वीय प्रभाव की देन है। किंतु वह प्रभाव नगण्य मात्र है और शौरसेनी की विशेषताओं को कहीं भी बाधित नहीं करता है। 'र' का 'ल' तो अभिलेखों में प्रयोग मिलता है; परन्तु 'स' का 'श' मागधी प्राकृत में होते हुए भी इसका उल्लेख कहीं नहीं है। इसीकारण शौरसेनी का महत्त्व यहाँ प्रतिपादित होता है। परन्तु यहाँ 'ण' का प्रयोग भी बहुलता से मिलता है, इसकारण से हम कह सकते हैं कि शिलालेखों की भाषा शौरसेनी प्राकृत है तथा क्षेत्रीय प्रभाव के कारण इनका स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है। (द) शिलालेखों के पाठ दरबारी विद्वानों ने तैयार किये थे, वे विद्वान् संस्कृत भाषा के अच्छे जानकार थे, अपेक्षाकृत प्राकृत के। यही कारण रहा होगा कि पाठ तैयार करते समय संस्कृतनिष्ठ शब्दों का पाठों में आना स्वाभाविक हो जाता है। (य) साहित्य-सृजन का नियम है कि लेखक जब जिस देश में रहता है, वहाँ की प्रचलिततम भाषा का उपयोग करता है। उसके उच्चारण भी उसी प्रकार के होते हैं। यही नियम शिलालेखों पर भी लगता है। शिलालेखों की मूलभाषा तो शौरसेनी है, परन्तु अशोक के शिलालेख दूर-दूर तक अनेक क्षेत्रों में पाये जाते हैं. इसकारण ही इनमें क्षेत्रीयता की दृष्टि से भेद आया है। (र) अशोक के शिलालेखों में एक ही शब्द के अलग-अलग रूप प्राप्त होते हैं, जैसे 'मृग:' संस्कृत शब्द का गिरनार शिलालेख में 'मगो', शाहबाजगढ़ी में 'मुगो' तथा पूर्व में स्थित शिलालेख में मिगे' रूप प्राप्त होता है। इसीप्रकार के कई अन्य उदाहरण भी मिलते हैं। (ल) ऐसे अनेक शब्दों के रूप प्राप्त होते हैं। अध्ययन करने से इस बात का पता चलता है कि क्षेत्रगत ये भेद मात्र ध्वनियों के हैं, इनके व्याकरण का कोई मौलिक अन्तर नहीं है। निष्कर्ष :- ईसापूर्व-युगीन शिलालेखों में शौरसेनी प्राकृत की प्रचुर मात्रा में प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं, भले ही उन पर क्षेत्रीय प्रभाव पड़ा हो। चूँकि इनकी लिपि 'प्राचीन प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 0075

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