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नाट्य-साहित्य का लोकजीवन में बहुत व्यापक प्रभाव रहा। क्योंकि यही एकमात्र ऐसा साहित्य था, जो दृश्य एवं श्रव्य–दोनों विधाओं से लोकरंजन करता था। इसके साथ ही इसमें लोकजीवन के पात्रों के अनुरूप विविध भाषायें, अनेक प्रकार की वेशभूषायें, विभिन्न प्रकार के चरित्र आदि जीवन्तरूप में लोगों का मनोरंजन करते थे। साथ ही इनके द्वारा विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृतियों, इतिहास एवं परम्पराओं आदि का भी बोध होने से शैक्षिक जगत् में भी इनकी व्यापक उपादेयता थी, जो आज तक अनवरतरूप से बनी हुई है। उपने उपर्युक्त गुणों के कारण ही नाट्य-साहित्य की सम्पूर्ण विधाओं में सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक विधा माना गया और 'काव्येषु नाटकं रम्यं' जैसी उक्तियाँ नीतिवाक्य के रूप में प्रचलित हुईं। ये सभी नाट्यसाहित्य के अद्वितीय महत्त्व को स्पष्टरूप से रेखांकित करती है। ___भरतमुनि 'नाटक' की कथावस्तु के विषय में अपना मत स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “देवता, मनुष्य, राजा एवं महात्माओं के पूर्ववृत्त की अनुकृति 'नाटक' हैं।" समय के अन्तर से नाटक का दूसरा नाम 'रूप' या रूपक' हुआ; क्योंकि यह आँखों से देखा जाता था, इसलिए 'रूप' था, और अतीत के व्यक्तियों का आज के नाटक करनेवाले पात्रों में आरोप होता था, इसलिए इसको 'रूपक' संज्ञा दी गई :
__ “अवस्थानुकृति नाट्यं रूपं दृश्यतयोच्यते।
रूपकं तत्समारोपात् दशधैव रसाश्रयम् ।।" – (दशरूपक) भारतीय परम्परा 'नाटक' की उत्पत्ति अलौकिक सिद्धान्त के आधार पर मानती है। भरतमुनि ने 'नाट्यशास्त्र' में बताया कि ब्रह्मा जी ने 'ऋग्वेद' से पाठ्य (संवाद), 'सामवेद' से संगीत, 'यजुर्वेद' से अभिनय, अथर्ववेद' से रस के तत्त्वों को लेकर नाट्यवेद की रचना की; परन्तु एक विचारधारा नाटक की उत्पत्ति लोकप्रचलित नृत्य और संगीत के उपकरण से मानती है। लोक में प्रचलित विविध मनोविनोदों, नृत्यों, अभिनयों से इसके स्वरूप को थोड़ा परिष्कृत करके 'रूपक' शास्त्रीय संज्ञा दी गई और बाद में उनमें से कुछ को अधिक पल्लवित और संस्कारित करके उपरूपक' बना दिया गया। __ 'रूपक' के कालान्तर में कई भेद हो गये। स्वयं आचार्य भरतमुनि ने दश प्रकार के रूपकों की चर्चा की है। परवर्ती काल में उपरूपकों का भी विकास हुआ। इन रूपकों एवं उपरूपकों के द्वारा नाट्य-साहित्य की परम्परा चिरकाल से पुष्पित और पल्लवित होती रही है।
इस परम्परा का महत्त्व जहाँ सांस्कृतिक एवं साहित्यिक दृष्टि से विशेष रहा, वहीं भाषिक दृष्टि से भी यह अत्यन्त उपयोगी रही है। एक किम्वदन्ती है कि “कोस-कोस पर बदले पानी, तीन कोस पर बदले वाणी।" अर्थात् जल के गुण, स्वाद आदि एक कोस की दूरी पर बदल जाते हैं तथा वाणी का स्वरूप तीन कोस की दूरी पर बदल जाता है। तथा
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000