Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 51
________________ हमारा अनुमान है कि महाकवि सिद्ध द्वारा उल्लिखित बल्लाल होयसल-वंशी बल्लाल राजाओं में से कोई एक बल्लाल ही रहा होगा। उक्त राजवंश में उस नामके तीन राजा हुए है, किन्तु आचार्य हेमचन्द्र ने कुमारपाल की जिस मालवपति बल्लाल के साथ युद्ध की चर्चा की है, वह होयसल-वंशी नरेश रणरंग का ज्येष्ठ पुत्र होना चाहिए, जिसका समय वि०सं० 1158-1163 है। इस सन्दर्भ में आचार्य हेमचन्द्र एवं बडनगर की वह प्रशस्ति ध्यातव्य है, जिसके अनुसार कुमारपाल ने स्वयं या उसके किसी सामन्त ने युद्ध-क्षेत्र में ही बल्लाल का वध कर दिया था। अत: प्रतीत होता है कि बल्लाल वि०सं० 1161-62 में दक्षिण से साम्राज्य-विस्तार करता हुआ उत्तर-पूर्व की ओर बढ़ रहा होगा और किसी भिल्लम" शासक को पराजित करता हुआ वह मालवा की ओर बढ़ा होगा, तथा अवसर पाकर उसने । मालवा पर आक्रमण किया होगा और सफलता प्राप्त की होगी; किन्तु मालवा पर वह बहुत समय तक टिक न सका। वह सम्भवत: सिद्धराज जयसिंह के अन्तिम काल में वहाँ का अधिपति हुआ होगा। जयसिंह की मृत्यु के बाद चाहड़ एवं कुमारपाल के उत्तराधिकार को लेकर किए गये संघर्ष-काल के मध्य ही बल्लाल मालवपति बनकर वहाँ अपने स्थायी पैर जमाने के लिए सैन्य-संगठन एवं आसपास के पड़ौसी राजाओं के साथ सन्धियाँ करता रहा होगा। इसी बीच कुमारपाल अणहिलपाटन का अधिकारी बना होगा। आचार्य हेमचन्द्र ने उसके राज्य को निष्कंटक बनाने हेतु सर्वप्रथम मालवपति बल्लाल को पराजित करने की सलाह दी होगी। बल्लाल की पराजय एवं वध उसी का फल था। अल्पकालीन विदेशी नरेश होने के कारण ही उसका नाम मालवा के अभिलेखों में नहीं मिलता। ___बड़नगर की प्रशस्ति का समय वि०सं० 1208 है।" अत: उसके पूर्व ही उस का वध हो चुका होगा। बल्लाल का पिता रणराग" ही 'पज्जुण्णचरिउ' का रणधोरी मानना चाहिए। बहुत सम्भव है कि बल्लाल के पिता रणराग का रण की धुरा को वहन करने के कारण रणधोरी' यह विरुद रहा हो? हम ऊपर चर्चा कर आये हैं कि बल्लाल ने मालवा पर आक्रमण के पूर्व, उत्तर में किसी भिल्लम को पराजित किया था। वह 'बम्हणवाड' का शासक रहा होगा, जिसे कवि ने गुहिल-गोत्रीय क्षत्रियवंशी भुल्लण कहा है। बल्लाल ने उसे पराजित कर अपना सामन्त बनाया होगा और उसे ही कवि ने भृत्य की उपाधि प्रदान की है, जो माण्डलिक की कोटि में आता है। उक्त राजाओं में से बल्लाल का समय वि०सं० 1161-62 के आसपास निश्चित है। इसी आधार पर 'पज्जुण्णचरिउ' का मूल रचनाकाल भी वि०सं० की 12वीं सदी का अन्तिम चरण माना जा सकता है। सन्दर्भ-सूची :1. तिलोयपण्णत्ती गाथा 14841 2. पज्जुण्णचरिउ, 15291371 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 4049

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