Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 55
________________ चारों ओर देख पाने की क्षमता के प्रतीक की उपस्थिति और भारतीय जैन-मूर्तियों की परम्परा के समान मात्र मूर्ति की आंखों को भरकर (इनले की पद्धति से) बनाने की परिपाटी का अनुकरण इत्यादि विशेषतायें उसे सीधे हड़प्पा संस्कृति के माध्यम से जैनों की ऋषभदेव की मूर्ति-परम्परा से जोड़ती हैं। यहा. यह बताना समीचीन होगा कि 'अन' नाम 'अंक' शब्द या फिर इण्डो योरोपियन शब्द 'वन' (अंग्रेजी) का पूर्वज रहा होगा, जो ऋषभदेव के पर्यायवाची ‘आदि' का समानधर्मा है। इस पर फादर हेरास का यह कथन महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि सांस्कृतिक प्रवाह की धारा मार्शल के उस वक्तव्य से भी होती है, जो हड़प्पा संस्कृति की खोज को स्थापित करने के तुरन्त बाद 1923-24 में उन्होंने दिया था। अपने समय के श्रेष्ठ के पुरातत्त्वविदों की अनुशंसाओं को ध्यान में रखते हुए उसमें उन्होंने संभावना व्यक्त की थी कि भारत मानव-संस्कृति का प्रथम झूलाघर रहा होगा। हड़प्पा लिपि के अध्ययन से जुड़ी कुछ विसंगतियाँ अत: हड़प्पा-संस्कृति की लिपि के अध्ययन से उभरते जैनों के आचरण-संबंधी और पौराणिक स्वरों और उस समय की समकालीन संस्कृतियों के विकास पर उनकी गहरी छाप के रहते, मेरा हड़प्पा की मोहरों पर उत्कीर्ण अभिलेखों का अध्ययन आगे बढ़ता रहा। मगर हड़प्पा की लिपि विश्व के लिपिशास्त्रियों के लिये एक अभेद्य दीवार बनी हुई है। इतना ही नहीं, बलिक वैश्विक स्तर पर विद्वानों के बीच एक प्रकार का दुराग्रह विकसित होता रहा है। संभवत: इसके पीछे कुछ राजनैतिक कारण भी रहे हैं। सामान्यत: विदेशी पाश्चात्य विद्वान् जहाँ एक ओर इस लिपि में व्यक्त भाषा को द्रविड़ सिद्ध करने पर तुले हुए हैं और उन्हीं के इस प्रवाह के रहते कुछ तमिलभाषी विद्वान हड़प्पा लिपि के चिह्नों को मात्र प्रतीक चिह्न (इडियोग्राफ्स) समझकर मोहरों पर तमिल भाषा उकेरी गई होने का आग्रह करते हैं। इसके विपरीत भारतीय विद्वान् जाने अनजाने और सम्भवत: भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक स्थिति और उसके सांस्कृतिक इतिहास को दृष्टि में रखते हुए, हड़प्पा की लिखावट में संस्कृत-मूलक भाषा पर जोर दे रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में किसी भी अध्येता के लिये अपने विचारों को प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने में कठिनाई होती है और अगर वह अपनी बात कहे भी, तो विद्वत्-समाज सहमति देने में कठिनाई का अनुभव करता है। इस विषय की सबसे बड़ी बाधा ऐसे बाहरी प्रमाण के नितांत अभाव की है, जो लिपि के वाचन के किसी प्रयास के लिये निर्णायक हो सके। कई प्राचीन लिपियों के वाचन-प्रयासों के समय द्विभाषिक अभिलेख बड़े सहायक सिद्ध हुए थे; मगर हड़प्पा के सन्दर्भ में ऐसा कोई द्विभाषिक अभिलेख प्राप्त नहीं हुआ है। मोहटों पर उकेटे गये चित्रों का महत्त्व इन विसंगतियों और कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए, यहाँ वाचन-प्रयास करते हुए प्राकृतविद्यार अक्तूबर-दिसम्बर '2000 0053

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