Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ हड़प्पाकीमोहरोंपरजैनपुराण और आचरण केसन्दर्भ -डॉ रमेशचन्द्र जैन सर्वप्रथम यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हड़प्पा की लिपि अभी तक बोधगम्य स्वीकार नहीं की गई है। वर्तमान लेखक ने अपनी ओर से पूर्णत: वैज्ञानिक पद्धति का अनुकरण करते हुए वाचन के प्रयास किये हैं और अपनी अवधारणा के अनुरूप हड़प्पा लिपि की चारित्रिक विशेषतायें गिनाते हुए उसके अनुरूप विकसित की गई वाचन-पद्धति का ब्यौरा भी विभिन्न प्रकाशित एवं प्रसारित शोध-पत्रों में प्रस्तुत किया है। उन्हीं वाचन-प्रयासों में से चुने गए जैन पौराणिक व आचरण विषयक कुछ उदाहरण यहाँ उपलब्ध किये जा रहे हैं। उन उदाहरणों से संबंधित हड़प्पा की मोहरों के चिह्नों और उन पर उकेरे गये चित्रों के विवरण भी इरावती महादेवन के ग्रन्थ से प्रस्तुत किये जा रहे हैं।' इसीप्रकार यहाँ यह जोड़ देना उपयोगी होगा कि वाचन प्रयासों से उपलब्ध सभी शब्दों के अर्थ सर मोनियर-विलियम्स के संस्कृत अंग्रेजी शब्दकोष पर आधारित है।' हड़पा के लेखन की मूल प्रवृत्तियाँ वर्ष 1986-87 के हड़प्पा की लिपि के वाचन-प्रयासों के प्रारम्भिक दिनों में जैनविषयों की उपस्थिति के संकेत मुझे चौंकाने वाले लगते थे। फिर हड़प्पा-लिपि के अध्ययन संबंधी अपने शोध (शोध-उपाधि के लिये) कार्य में सतत् उनकी पुष्टि होती दिखती रही।' भाषा और लिपि का अध्ययन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया, हड़प्पा-संस्कृति के विषय में उसके विशुद्ध भारतीय, आंचलिक होने का विश्वास पक्का होता गया। और अपने सहज सरल स्वरूप में संस्कृत की सहोदरा और प्राकृत के समान भारतीय अंचलों की धूल-माटी में सनी भाषा उजागर होती गई। उसी के साथ मोटे तौर पर लिखावट में निहित साहित्य श्रमणिक-स्वभाव का होना सुनिश्चित होता गया। विषय को सूत्ररूप में प्रस्तुत करना इस लिखावट की विशेषता है। काव्यमयी भाषा में उकेरे गये शब्द अपनी प्रकृति से ही विशुद्ध सरल स्वभाव के हैं। हर शब्द अपने मौलिक स्वरूप में, सम्पूर्ण बहुआयामी विविधता के साथ, लेखक के सन्देश को जहाँ एक ओर अग्रसर करता है, वहीं दूसरी ओर वह अपने भावात्मक इतिहास का अहसास करा देता है और इन शब्दों में पिरोया हुआ मिलता है, एक श्रमणिक समाज का वृहत्तर ताना-बाना। इस अध्ययन से एक ओर जहाँ हड़प्पा लिपि प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर 2000 0051

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116