Book Title: Prakrit Vidya 2000 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 47
________________ तथा मेरे गुरुजन मेरी समस्त त्रुटियों को क्षमा करें। 9वीं सन्धि से 15वीं सन्धि तक की अन्त्य पुष्पिकाओं में सिंह कवि का ही उल्लेख मिलता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सिंह कवि ने उक्त अन्तिम 7 सन्धियों का पूर्ण रूप में उद्धार अथवा प्रणयन किया था । इन प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि पजुण्णचरिउ का मूलकर्ता कवि सिद्ध था और उसका उद्धारक था महाकवि सिंह । मूल ग्रन्थकार - परिचय जैसा कि पिछले प्रकरण में लिखा जा चुका है 'पजुण्णचरिउ' का मूल ग्रन्थकार महाकवि सिद्ध है। उसका विस्तृत परिचय प्राप्त करने के लिए पर्याप्त एवं क्रमबद्ध सामग्री का अभाव है। 'पज्जुण्णचरिउ' की आद्य - प्रशस्ति से यही विदित होता है कि उसकी माता का नाम ‘पम्पाइय’ तथा पिता का नाम देवण" था । उक्त प्रशस्ति से ही विदित होता है कि महाकवि सिद्ध सरस्वती का परम भक्त था । बहुत सम्भव है कि उसे वह सरस्वती-सिद्ध हो, क्योंकि उसने लिखा है कि “एक दिन जब वह चोरों के भय से आतंकित हो कर रात्रि- - जागरण कर रहा था, तभी उसे अन्तिम प्रहर में निद्रा आ गई। उसी समय स्वप्न में उसने श्वेत वस्त्र धारण किए हुए, हाथों में कमल पुष्प तथा अक्षसूत्र ग्रहण किए हुए एक मनोहारी महिला को देखा। उसने कहा "हे सिद्ध (कवि ) ! अपने मन में क्या-क्या विचार किया करते हो?” तब सिद्ध कवि ने अपने मन में कम्पित होते हुए कहा 'काव्य - बुद्धि को प्राप्त करने की इच्छा करता हूँ, किन्तु लज्जित बना रहता हूँ; क्यों मैं तर्कशास्त्र, छन्दशास्त्र एवं लक्षणशास्त्र के ज्ञान से रहित हूँ। न तो मैं समास एवं कारक जानता हूँ और न सन्धि-सूत्र के ग्रन्थों के सारभूत - अर्थों को जानता हूँ। किसी भी काव्य को देखा तक नहीं। मुझे कभी किसी ने निघण्टु तक नहीं पढ़ाया। इसी कारण मैं चिन्तित बना रहता हूँ । किन्तु (साहित्य - शास्त्र में ) बौना होने पर भी साहित्य - शास्त्र रूपी ताल- वृक्ष को पा लेने की अभिलाषा है । ( साहित्य - शास्त्र में ) अन्धा होने पर भी नित्य नवीन काव्य- रूपी वस्तु देखने की इच्छा किया करता हूँ । बधिर होने पर भी साहित्य-शास्त्र रूपी संगीत के सुनने की आकांक्षा किया करता हूँ। मेरी यह प्रार्थना सुनकर वह श्रुतधारिणी सरस्वती बोली “हे सिद्ध ! अपने मन से आलस्य छोड़ो। मेरे आदेशों को दृढ़तापूर्वक पालो, मैं (शीघ्र ही ) तुझे मुनिवर के वेश में आकर कोई काव्य-विशेष करने को कहूँगी, तब तुम उसकी रचना करना । " तत्पश्चात् महान् तपस्वी मलधारी देव मुनि पुंगव माधवचन्द्र के शिष्य अमयचन्द्र भट्टारक विहार करते-करते बम्हडवाडपट्ट्न' पधारे और वहीं पर उन्होंने मुझे (सिद्ध कवि को) 'पज्जुण्णचरिउ' के प्रणयन का आदेश दिया।' इससे यह सिद्ध है कि कवि सरस्वती का परमोपासक था । इसके अतिरिक्त 'पजुण्णचरिउ' में अष्टद्रव्यपूजा के प्रसंग में प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 2000 0045

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