Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 12
________________ स्पष्ट उल्लेख भी किया है) मलय (मलयदेश या केरल) एवं सुराष्ट्र (सौराष्ट्र प्रदेश)। इनमें सत्ताईसवें पुत्र 'मागध' के नाम पर देश का नाम 'मगध' या 'मागध' पड़ा तथा अट्ठाईसवें पुत्र विदेह' के नाम पर उस देश का भी विदेह' पड़ा। इसी क्रम में चक्रवर्ती भरत ने भी अपनी नौवीं पौत्री 'कुमारी' के लिये भारत के दक्षिणी समुद्रतट का राज्य दिया था, उसीके नाम पर 'कन्याकुमारी' नामक क्षेत्र आज भी प्रसिद्ध है। ___कोश-ग्रन्थों में इन दोनों देशों के बारे में जो परिचय मिलता है, प्रथमत: वह संक्षिप्तरूप में प्रस्तुत है1. अभिधानराजेन्द्रकोश___ मगह-मगध (पुं.)-राजगृहप्रतिबद्धे आर्य जनपदे। मगहपुर-मगधपुर (नपुं.)। विदेह(पु.)-ऋषभदेवस्य अष्टाविंशतितमे पुत्रे, तद्राज्ये मिथिलानगरी-प्रतिबद्ध जनपदे।..... इहेव भारहे वासे पुव्वदेसे विदेहा णामं जणवया। संपइकाले तिरहुत्ति देसो त्ति भण्णइ। विदेहजच्चविदेहजार्च (पुं.)– विदेहा-त्रिशला, तस्यां जाता अर्चा शरीरं यस्य स तथा वीरस्वामीति । 2. शब्दकल्पद्रुम- विदेहः (पं.)-जनकान्वय भूमियः । विदेहा (स्त्री.)-मिथिला - इति हेमचन्द्र:।10 मगध: (पुं.)—मगं दोषं दधाति इति ।..... कीकटदेश: । अधुना बिहाराख्यदेशस्य दक्षिणभागः।" 3. संस्कृत-हिन्दी-कोश___ मगध: (पुं.)-एक देश का नाम, बिहार का दक्षिणी भाग।" विदेहा: (पु.ब.व.)विगतो देहो देहसंबंधो यस्य । एक देश का नाम, प्राचीन मिथिला। 4. हिन्दी विश्वकोश विदेह - (सं.पुं.)—राजा जनक, प्राचीन मिथिला (वर्तमान तिरहुत), कायशून्य या जो शरीर से रहित हो।.... जो सिद्धिलाभ करते हैं, उन्हें 'विदेह' कहते हैं। प्रपौत्र: शकुनेस्तस्य भूपते: प्रपितृव्यज: । अथावहदशोकाख्य: सत्यसंधो वसुंधराम् ।। य: शान्तवृजिनो राजा प्रपन्नो जिनशासनम् । शुष्कलेत्रबितस्तात्रो तस्तार स्तूपमण्डलैः ।। धर्मारण्यविहारान्तर्बितस्तात्रपुरेश्भवत् । यत्कृतं चैत्यमुत्सेधावधिप्राप्त्यक्षमेक्षणम् ।। स षण्णवत्या गेहानां लक्षैर्लक्ष्मीसमुज्ज्वलैः । गरीयसी पुरीं श्रीमांश्चक्रे श्रीनगरी नृपः ।। अर्थ :- उसके बाद राजा शकुनि का प्रपौत्र सत्यप्रतिज्ञ अशोक पृथ्वी का शासक हुआ। वह पुण्यात्मा था, जैनधर्म को स्वीकार कर उसने 'शुष्कलेत्र' और 'वितस्तात्र' नामक दो स्थानों पर अनेकों मानस्तंभ बनवाये। उसने वितस्तात्रपुर के धर्मारण्य विहार में इतना ऊँचा जैन-मन्दिर बनवाया था, कि जिसकी ऊँचाई का निर्णय करने में दर्शकों की आँखें असमर्थ हो जाती थीं। उस परमप्रतापी एवं अतिशय धनाढ्य राजा ने धनजन से परिपूर्ण छियानवें लाख स्वर्ण-मुद्रायें खर्च करके दिव्यभवनों से विभूषित बहुत बड़ा ‘श्रीनगर' नामक नगर बसाया। - (महाकवि कल्हणकृत 'राजतरंगिणी' 1/101-104, प्रकाशक-पण्डित पुस्तकालय काशी, सन् 1960 ईस्वी) 00 10 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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