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भरे हुए बचन सुन कर स्वामी हितेच्छु राज कर्मके प्रत्री मन्त्री वर्गने कहा, -- “स्वामिन ! इष्टका वियोग होनेपर संसार में किसे 'दुःख नहीं होता ? और माता-पिता सदा किसके जीते रहते हैं ? आपके पिता श्रीकुणिक महाराजकी भी उनके पिता श्रेणिक मरनेपर यही अवस्था हुई थी; परन्तु जब उनका वित्त - राजगृह - नगर में स्थिर न हुआ, तब उन्होंने यह नगरी बसायी -यी और यहाँ रहकर अच्छी तरह राज्य-पालन किया था। इस'लिये आपका भी यदि यहाँ रहकर शोक दूर न हो, तो आप भी कहीं अच्छी जगह तलाश कराकर नवीन नगर बसाइये और वहीं - राजधानी बनवाइये। यह सुनकर राजा उडायोने ऐसा ही किया नैमित्तियों (ज्योतिष विद्या जाननेवालों ) को बुलाकर आज्ञा दे -दी कि नवीन नगर बसानेके लिये कह अच्छी भूमि देखो । राजा उदयको आज्ञा पाकर नौमित्तिक प्रदेश देखनेके लिये यत्र-तत्र जंगलों में निकल पड़े । अनेक स्थानोंको देखते हुए वे गंगा नदी किनारे एक रमणीय स्थानमें जा पहुँचे । उन्होंने वहां पर पुष्पोंसे लहलहाया सघन छायावाला एक 'पालि' - वृक्ष देखा । उस मनोहर वृक्षको देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए और अपने विद्याबल से विचार किया, तो उनके ध्यानमें आया, कि यह नवोन नमर बनाने योग्य अति श्रेष्ठ भूमि है । यहाँ राजधानी बनानेसे राजाको स्वयमेव ही सम्पदाएँ प्राप्त होतो रहेंगी । सब नैमित्तिsोंने मिलकर यही निर्णय किया और राजाके पास जाकर कहा, "राजन् ! हमने बहुत स्थान देखें; परन्तु गंगा नदीके