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( २० ) 'पता भी नहीं था, केवल उसके (संस्धारक) वित्तरेके पास लहू से भरी हुई एक छोटी सी तेज़ छुरी पड़ी हुई थी। यह देखकर उनको 'विश्वास हो गया, कि यह पैशाचिक कार्य उसी साधुका है इससे वे चिन्ताके समुद्रमें डूब गये। आचार्य महारज सोचने लगे, कि मैंने जो उस दुष्टको दोक्षा दी तथा विश्वास करके उसे राजकुल में लाया, यही मेरो भूल हुई। अतएव इसके लिये में हो दोषो हूँ। अब मेरे लिये यही उचित है, कि आत्मत्याग करके प्रवचनका जो उड्डाह होनेवाला है, उसकी रक्षा करू; क्योंकि प्रातःकाल इस अदर्शनीय दृश्यको देखकर सब लोग इस कुकृत्यका कलङ्क मेरे ही ऊपर रखेंगे। ऐसा सोचकर आचार्य महाराजने, उसी छुरीको अपनी गर्दनपर भी फेर ली, जिसने राजा उदायीके प्राणोंका अपहरण किया था। सच है, महात्मा मानकी रक्षाके लिये अपनी आत्मा तक दे डालते है। प्रातःकाल होनेपर शय्यापालक जब पौषधशालामें आये और उस अमङ्गलको देखा, तब उनका शरीर कांप उठा। उन्होंने विल्लाकर लोगों को पुकारा। फिर तो कहना ही क्या था? शीघ्रहो सब के सब राज पुरुष वहाँ आ इकट्ठे हुए। राजा उदायी और “आचार्य महाराजको लाशें देखकर सबका ही कलेजा कांप उठा, तथा सवने मिलकर यही निश्चय किया, कि इस मर्मभेदी अका ण्डको उसी छोटे मुनिने किया है । पीछे यह बात सर्वत्र फैल गयी सम्पूर्ण राजकुलमें हाहाकार मच गया। कोई तो उस साधुके विषयमें अनेक तर्क-वितर्क करने और उस दुष्टको भला बुरा कहने