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( १६ ) किया। आचार्य महाराजको रात्रिमें राजाकं पास रहना पड़ता था। इसलिये जब कभी जाते, तो अपने साथ सबसे अधिक विश्वास पात्र साधुको भी ले जाते थे इस बार उन्होंने उस नये साधु (धूर्त राज-पुत्र ) को ही सबसे अधिक विश्वासी समझा क्योंकि उसका वैराग्य और क्रिया देखकर उन्हें उसपर पूरा विश्वास हो गया था। अतएव उन्होंने उसे ही साथ चलनेको कहा। आचार्य महाराजका बचन सुन वह मायाचारी श्रमण मन-ही-मनमें परम प्रसन्न हुआ भक्तिका नाट्य दिखाता हुआ आचार्य महाराजकी और अपनी उपधि उठाकर आचार्य महा. राजके साथ हो गया । आचार्य महाराजके राजकुल में पहुंचनेपर प्रतिक्रमण आदि किये जाने के बाद राजा उदायी बहुत देरतक उनसे धर्म चर्चा करता रहा । जब रात अधिक बीत गयी, तब आचार्य महराज और राजा उदायी दोनों अपने-अपने (संस्थारक) बिछौनेपर सो गये,किन्तु उस धूर्त साधुको निद्रा नआयी क्योंकि “निद्रापि नैति भीतैव रौद्रध्यानवतां नणाम् ।" जब आधी रात बीत गयी, तब उस दुरात्मा साधुने अर्थात् रजोहरण ( ओघा ) में से एक तीक्ष्ण छुरी निकाली और उसीसे राजा उदायीका गला काट डाला। और पहरे दारोंसे जंगल जाने का बहाना करके राजकुलले बाहर निकल गया। थोड़ी देरके वाद जब आचार्य महाराजकी नींद खुली, और उन्होंने इस महान अकृत्यको देखा, तब उनका हृदय भर आया। उन्होंने कातर दृष्टिसे साधुकी ओर देखा; किन्तु उसका तो वहाँ पर