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( २५ ) नहीं मिला था। अब इस अवसरको प्राप्त करके राजा अपनेको धन्य समझता हुआ उन शंकाओंके बारेमें कल्पकसे पूछने लगा.
और कल्पक भी अपनी योग्यताके अनुसार गजाकी शंकाओं को (निर्मूल)दूर करने लगा। इस प्रकार दोनों में हार्दिक मैत्री हो गयी राजा और मन्त्री दोनों परस्पर आनन्द अनुभव करते हुए सुख पर्वक रहने लगे। कल्पकके मन्त्री पद स्वीकार करनेपर राजा नन्दकी राज्य लक्ष्मी दिन पर दिन बढ़ने लगी और उनका प्रताप दसों दिशाओमें फैल गया। सारांश यह, कि कल्पकके मन्त्री पद पर आसीन होनेपर राजा और प्रजा दोनों सुखी तथा प्रसन्न रहते थे किन्तु एक आदमी बहुतही दुःखी था और वह पहला प्रधानमन्त्री था जो पदसे भ्रष्ट होनेके कारण ईर्ष्यादिसे उसका हृदय कुम्हार के आवेके समान भीतर-ही भीतर जलता रहता था। अतः कल्पकको नीचा दिखाने तथा फिरसे अपनेपदको पानेके लिये वह (अनवरत यत्न) पूरी कोशिश करने लगा। किसीका परिश्रम व्यर्थ नहीं जाता अखिर उसका भी परिश्रम सफल हुआ । उसकी कूटनीतिने राजा नन्दको अधा बना दिया। दुर्भाग्यवश राजाने विना कुछ समझ-बूझ मन्त्री कल्पकको सपरिवार पकड़कर अन्धकूपमें कैदकर दिया और उन लोगोंके खाने-पीनेके लिये बहुत ही कम. अन्न जल दिये जानेकी व्यवस्था कर दी। कल्पकके कैद होनेकी बात जब चारों तरफ़ फैल गयी, तब शत्रु राजाओंके आनन्दको सीमा न रही। सबने अपनी-अपनी सेना सुजित कर पाटलिपुत्रको घेर लिया। यह हालत देखकर राजा नन्दके होश उड़ गये।