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(६ ) जयसिंहके घरपर रहना मंजूर कर लिया। जयसिंहने भी बड़ी धूमधामसे अपनी बहिन “अन्निका" का देवदत्तके साथ विवाह कर दिया।
विवाहके गद वे दोनों दम्पति परस्पर प्रेममें लीन हो, सांसारिक सुखोंको भोगते हुए बहुत समय दक्षिण मथुरामें हो व्यतीत किया। एक दिन अचानक देवदत्तके माता-पिताओंका भेजा हुआ एक पत्र आया,जिसे पढ़कर देवदत्तके नेत्रोंसे अश्रुधारा बहने लगी, किन्तु कहीं अनिका देख न ले, इसलिये रुमालसे अपने नेत्रोंको पोंछ लेते थे। तो भी अनिका अपने पतिके उदास मुख मण्डलको देखकर ताड़ गयी, कि आज कुछ न कुछ प्राण प्यारे पतिको दुःख अवश्य हुआ है। अतएव वह आप भी अश्रुपूर्णनेत्रोंसे कहने लगी,-"स्वामिन् ! आज आपकी ऐसी दशा क्यों है ? यह पत्र किसका है। यह पत्र भी कोई साधारण नहीं, मालूम पड़ता, क्योंकि इसके देखनेसे आपकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह रही है। और वह आँसू भो हर्षके नहीं, खेदके देख पड़ते हैं। अतएव आप शीघ्र कहिये, कि इसमें क्या रहस्य है ?' यह सुन देवदत्तने कुछ उत्तर नहीं दिया; बल्कि मुंह नीचा कर लिया। इसपर अनिकाने और भी उत्कष्ठा से देवदत्तके हाथसे उस पत्रको ले लिया और स्वयं बाँचना शुरु किया। उस पत्रमें लिखा थाः“आवां हि चक्षुविकलौ,चतुरिन्द्रियतांगतो। जराजजरसर्वागावासन्नयमशासना ।।