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(१०) आयुष्मन्नपिजीवन्तौकुलीनस्त्वंपदृक्षसे। तदेहयुद्वापयशावाबयोरुदतोसतोः ।
अर्थात् तेरे वियोगसे हम चक्षुविहीन हो, चौरिन्द्रियपनको प्राप्त हो गये तथा बुढ़ापेसे निर्बल होकर यमराजके समीप आ गये हैं। हे आयुष्मन् ! हे कुलीन! यदि तू हमें जीता हुमा देखना चाहता है, तो शीघ्र आकर हमारे नेत्रोंको शान्त कर ।"
- अनिका पत्रको वाँचकर बोली,-स्वामिन् ! आप इस ज़रासी बातपर इतने शोकातुर क्यों हो रहे हैं? आप इसकी कुछ भी चिन्ता न करें। मैं अभी जाकर अपने भाईको समझा देतो हूँ। आपका मनोरथ पूर्ण हो जायेगा । ___ यह कहकर अनिका चली गयी और शीघ्रही अपने भाईके पास पहुँचकर बोलो,–“भाई ! आप विवेकी होकर ऐसा क्यों कर रहे हैं ? आपका बहनोई अपने कुटुम्बके बियोगमें दुखी हो रहा है और मैं भी अपने सास-ससुरके दर्शन किया चाहती हूँ । इसीलिये आप उन्हें अपने घर जानेकी भाशा दे दीजिये। यदि वे अपनी प्रतिज्ञासे बंधे रहने के कारण न भी जायेंगे, तो मै अवश्य जाऊँगी।" जयसिंहने जब अनिकाका ऐसा बचन सुना तब किसी प्रकार अपने मनको धैर्य देकर उसने अपने बहनोईको घर जानेकी आज्ञा दी। आज्ञा पाकर देवदत्तने भी बड़ी प्रसनताके साथ अपनी प्राण प्यारी अन्निकाको साथ लेकर उत्तरमथुराकी यात्रा की। अनिका उस समय आसन्न प्रसवा थी। अतएव मार्गमें ही समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त एक दिव्य