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राजा हुआ। इसके उदायी नामका पुत्र सुआ, जो बल, प्रताप तथा सच्चरित्र-पालनमें उस समय अद्वितीय था। कालक्रमले राजा कुणिकते इस असार संसारको त्यागकर स्वर्गारोहण करनेपर उसका पुत्र उदायी राज्यासनपर आसीन हुआ। अप्रतिम ऐश्वर्य प्राप्त करनेपर भी पिताकी मृत्युके शोकसे राजा उदायी सदा उदास रहता था। सम्पूर्ण राज्यमें अखण्ड आज्ञाप्रवर्तन पर भी मेघाच्छन्न सूर्यके समान राजा उदायीका मुख निष्प्रभ ( निस्तेज) सा रहता था। राजाकी ऐसी शोचनीय दशा देखकर एक दिन मन्त्री आदि प्रधान पुरुषोंने उनसे उदासी का कारण पूछा। राजाने आँखोंमें आँसू भरकर बड़े ही विनीत भावसे कहा,-"जब मैं इस ननरमें अपने पिताके क्रीडास्थानोंको देखता हूँ, तब मेरा हृदय भर आता है और मुझे बड़ी व्यथा होती है। क्योंकि मेरे हृदयमें पिताजी इस प्रकार बस गये हैं, कि जब मैं राज-सभा, राज-सिंहासन, स्नान, भोजन, शयनादिके स्थान देखता हूँ, झट स्मरण हो आता है, कि इन्हीं स्थापिर पिताजी मुझे अपनी गोदमें लेकर बैठते थे, स्नान-भोजन आदि करते थे। इससे मेरा हृदय समुद्रके समान उछलने लगता है और साक्षात् पिताजी देख पड़ते हैं। ऐसी अवस्थामें पिताजीके देखते हुए मै राज-चिन्होंको धारण करूँ, यह सर्वथा अनुचित है
और विनय गुणका भंग होता है अतएव इस राज-भवनमें रहकर मेरे हृदय से शोक दूर होना एकान्त असम्भव सा प्रतीत होता है।" राजा उदायीके मुखसे इस प्रकार शोक एवं सन्तापसे