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देहादेवलि जो वसइ सत्तिहिं सहियउ देउ। को तहिं जोइय सत्तिसिउ सिग्घु गवेसहि भेउ ॥54॥
शब्दार्थ-देहादेवलि-देह (रूपी); देवालय में; जो; वसइ-रहता है; सत्तिहिं-शक्ति से; सहियउ-सहित; देउ-देव; को-कौन; तहिं-वहाँ; जोइय-योगी; सत्तिसिउ-शक्ति (मान) शिव; सिग्घु-शीघ्र; गवेसहि-खोजो; भेउ-भेद, रहस्य।
अर्थ-देह रूपी देवालय में जो शक्तियों से सहित देव वसता है; हे जोगी! वह शक्तिमान् शिव कौन है? इस रहस्य की शीघ्र ही गवेषणा, खोज कर।
भावार्थ-लोक में सब कहते यही हैं कि यदि आत्मशक्ति न हो, तो शरीर-शक्ति अथवा अस्त्र-शस्त्र की शक्ति क्या कर सकती है? बात भी ठीक है। यह सम्पूर्ण सृष्टि शक्तिमान् से संचालित है। यदि शक्ति न हो, तो फिर शक्तिमान का भी क्या अस्तित्व है? इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य गुण की शक्ति से क्रियाशील है। उसे ही वस्तु की योग्यता कहते हैं। योग्यता का अर्थ है-पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति। क्षयोपशम (ज्ञान-दर्शनादि गुणों को ढंकने वाले कर्म के क्षय तथा उपशम) से प्रकट होने वाली शक्ति को भी योग्यता कहते हैं। किन्तु स्वाभाविक शक्ति के सन्दर्भ में कारण के कार्य को उत्पन्न करने वाली स्वाभाविक शक्ति को योग्यता कहते हैं। यद्यपि धान के बीज और धान के अंकुरों में भिन्न-भिन्न समय में वृत्तिपने की समानता होने पर भी साठी चावल के बीज की ही धान के अंकुरों को पैदा करने की शक्ति है। कोई चाहे कि जौ के बीज से धान पैदा कर लिया जाए, तो सम्भव नहीं है। अतः द्रव्य के परिणमन में उसकी योग्यता ही कारण है। वास्तव में शक्तियों का प्रतिनियम पदार्थ के अपने स्वभाव से हो जाता है। (श्लोकवार्तिक 1, 1, 1, 126)
निश्चित ही परमात्मा शक्तिमान शिव है। उसे ही भगवान् समझना चाहिए।
मुनिश्री योगीन्दुदेव कहते हैं कि दुनिया के लोग यह कहते हैं कि जिनदेव तीर्थं में और मन्दिर में विराजमान हैं। परन्तु कोई विरला पण्डित ही यह समझता है कि जिनदेव तो देहरूप देवालय में विराज रहे हैं। (योगसार, दो. 45) अतः अपने शरीर रूपी मन्दिर में आत्मदेव को पहचानना योग्य है।
1. अ, द, ब, स देहादेवलि; क देहादेउलि; 2. अ सहिउ; क, द, ब, स सहियउ; 3. अ, क, द, स गवेसहि; ब गवसइ।
78 : पाहुडदोहा