Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 222
________________ हासउ-हँसी; महु-मुझे मणि-मन में; अत्थि-है; इहु-यह; सिद्ध-सिद्ध परमात्मा से; भिक्ख-भिक्षा (माँगने के लिए); भमेहि-घूमते हो, भटकते हो। अर्थ-देहरूपी मन्दिर (देवालय) में शिव निवास करता है, किन्तु तुम मन्दिरों में उसे खोजते हो। मुझे मन-ही-मन हँसी आती है कि तुम सिद्ध भगवान् से भीख माँगने के लिए भटक रहे हो। भावार्थ-उक्त दोहे से मिलता हुआ दोहा 'योगसार' में भी है। उसमें कहा गया है कि जिनदेव देह रूपी देवालय में विराजमान हैं, किन्तु जीव बाहर के देवालयों में उनके दर्शन करता है-यह मुझे कितना हास्यास्पद मालूम होता है। यह बात ऐसी ही है, जैसे कोई मनुष्य सिद्ध हो जाने पर भिक्षा के लिए भ्रमण करे। (योगसार, दो. 43) वास्तव में परमात्मा बाहर में कहीं नहीं है, वह देह रूपी मन्दिर में विराजमान है। मुनि योगीन्द्रदेव कहते हैं कि जिसके मात्र शरीर में रहने पर इन्द्रियों का गाँव बस जाता है और शरीर छोड़कर चले जाने पर इन्द्रिय-ग्राम उजड़ जाता है; निश्चित ही वह परमात्मा है। (परमात्मप्रकाश 1, 44) तथा-"श्रुतकेवली ने कहा है कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं हैं, जिनदेव तो देहरूपी देवालय में विराजमान हैं-इसे निश्चित रूप से समझो।” (योगसार, 42) वास्तव में हमारे भाव ही मन को बसाने वाले हैं जोकि अशुद्ध भाव हैं और शुद्ध भाव मन को उजाड़ने वाले हैं। मनके लगने पर, रमण, विलास करने पर इन्द्रियों का गाँव बस जाता है और मनके उखड़ते ही इन्द्रिय-ग्राम उजड़ जाता है। मन में यदि धर्मबुद्धि होती है तो जीव पापों से हटता है, शुभ भाव करता हुआ भी उनको हेय मानता है और शुद्ध भाव से मन को निज शुद्धात्म स्वभाव में विलीन कर निर्विकल्प शुद्धात्मानुभूति को उपलब्ध कर सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है। आचार्य अमितगति का कथन उक्त दोहे में स्पष्ट रूप से भावानुवाद है। उनके शब्दों में योऽन्यत्र वीक्षते देवं देहस्थे परमात्मनि। सोऽन्ने सिद्धे गृहे शङ्के भिक्षां भ्रमति मूढधीः ॥योगसार 6, 22 अर्थात्-अपने देह में स्थित परमात्मा को छोड़कर जो अन्य स्थानों पर भटकता है, वह मूढ़ घर में भोजन के तैयार होने पर भी भिक्षा के लिए भ्रमण करता वास्तव में आत्मा ही तीर्थ है। लेकिन निर्मल आत्मतीर्थ का ज्ञान न होने से अन्य तीर्थस्थानों पर भटकते फिरते हैं। 220 : पाहुडदोहा

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