Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 249
________________ तथा विरोधी नहीं है। सभी जीव अपने सत्त्व रूप विलसते हैं, इसलिए अपने स्वभाव को छोड़कर सभी द्रव्यों की भाँति कभी अन्य रूप परिणमन नहीं करते हैं। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध के कारण जीव का विभाव रूप परिणमन कहा जाता है, किन्तु जीव कभी भी राग, द्वेष, मोह रूप नहीं बदल सकता है; विभिन्न अवस्थाओं के कारण ही व्यवहार में ऐसा कथन किया जाता है। दहविहु जिणवरभासियउ धम्मु अहिंसासारु। अहो जिय भावहि एक्कमणु जिम तोडहि संसारु ॥210॥ शब्दार्थ-दहविहु-दशविध; जिणवरभासियउ-जिनवर से उपदिष्ट; धम्मु-धर्म; अहिंसासारु-अहिंसा सार (है जिसका); अहो-हे!; जिय-जीव; भावहि-भावना भाओ; एक्कमणु-एकाग्र मन (से); जिम-जिस प्रकार; तोडहि-टूटे; संसारु-संसार। _अर्थ-हे जीव! जिनवर द्वारा कहा गया दश प्रकार का धर्म, जिसमें अहिंसा सार है, उस धर्म की एकाग्र मन से भावना भाओ, जिससे इस संसार को तोड़ सको। भावार्थ-यथार्थ में धर्म अहिंसा ही है। अहिंसा अपने वास्तविक अर्थ में राग-द्वेष विहीन है। जहाँ परिणामों में समता भाव है, राग-द्वेष का कोलाहल उत्पन्न नहीं होता, वहीं सुख और शान्ति है। सार यही है कि अपने ज्ञानानन्द स्वभाव को प्राप्त कर लेना धर्म है और वही अहिंसा का सार है। वस्तुस्वभावमूलक अहिंसाधर्म के दश लक्षण कहे गये हैं जो इस प्रकार हैं-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य। धर्म को पहचानने के लिए ये दश प्रकार के चिह्न कहे गये हैं। यथार्थ में वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। स्वभाव का कभी अभाव नहीं होता है। लोक में जितने पदार्थ हैं, वे कभी भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। यदि स्वभाव का नाश हो जाए, तो वस्तु का अभाव हो जाएगा। आत्मा नाम की वस्तु का स्वभाव क्षमादिक रूप है। दश धर्मों का स्वरूप भेदवृत्ति से दश प्रकार का है। अभेद में तो धर्म एक वस्तु का स्वभाव मात्र है। इसीलिए कहा गया हैआत्मा धर्मः स्वयमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोगं (प्रवचनसारकलश, श्लोक 5) 1. अ, क, द, स धम्मु; ब धम्म; 2. अ अहु; क, द, ब, स अहो; 3. अ, क, द, स जिय; व जीव; 4. अ, ब भावइ; क, द, स भावहि; 5. अ एक्कु; क, द, ब, स एक्क; 6. अ तोडइ; क, द, ब, स तोडहि। पाहुडदोहा : 247

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