Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 251
________________ ऐसे सम्यग्दर्शन की भावना कौन नहीं भाएगा? लोक में जो दान देते हैं उनको धन्य कहते हैं, जिनके विवाहादि कार्य सम्पन्न हो जाते हैं उनको कृतार्थ कहते हैं, जो युद्ध में पीठ दिखाकर वापस नहीं लौटते उनको शूरवीर कहते हैं, बहुत शास्त्र पढ़े हुए को पण्डित कहते हैं । वास्तव में वे सब कहने के हैं । जो मोक्ष के कारण सम्यक्त्व को मैला नहीं होने देते हैं, वे ही धन्य, कृतार्थ, शूरवीर और पण्डित हैं । कई तरह की होती हैं- कर्म की, संसार की, मन की और शरीर की । कर्म के रोग भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म हैं। संसार के रोग जन्म-मरण हैं । मन के रोग चिन्ता, द्वन्द्व और आकुलता या परेशानी है । शरीर के रोग इन्द्रियों की विकृति, अशक्ति और गड़बड़ी है । अज्ञान कर्म की ही बीमारी है । क्योंकि ज्ञेय के होने पर उसका कोई प्रतिबन्धक कारण न हो तो उसे ज्ञानी जानकर ही रहता है । ( योगसार, 7, 11 ) इसलिए विषयों का संग होने पर भी ज्ञानी उससे लिप्त नहीं होता। जिस प्रकार मल के मध्य में पड़ा हुआ स्वर्ण मल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार राग में एकत्व बुद्धि न होने के कारण ज्ञानी विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता । ( आचार्य अमितगतिः योगसार, 4, 19 ) ज्ञानी की तो सदा भावना यही रहती है कि जन्म-जन्मान्तरों में मल रहित शुद्ध सम्यक्त्व उपलब्ध हो, बना रहे । निज शुद्धात्मा की भावना के बल से स्वभाव के सन्मुख होकर आत्म-स्वभाव में स्थिरता हो, समाधि की प्राप्ति हो । समस्त विकल्पों के अभाव में समाधि होती है। जो वीतराग भाव से आत्मा को ध्याता है, उसे समाधि की प्राप्ति होती है। (नियमसार, गा. 122) जब तक सद्गृहस्थ निज शुद्धात्मा की साधना के द्वारा समाधि प्राप्त करने योग्य नहीं होता, तब तक वह निरन्तर समाधि की भावना भाता है तथा सामायिक आदि के काल में शुद्धोपयोग की भावना के बल पर समाधि की पात्रता प्राप्त करता है। बाहर में और अन्तरंग में भी ज्ञान-वैराग्य की भूमिका बनाये रखने का वह बराबर पुरुषार्थ करता है। अणुपेहा' बारह वि जिय भाविवि' एक्कमणेण । रामसीहु मुणि इम भणइ सिवपुरि पावहि जेण ॥12॥ . शब्दार्थ - अणुपेहा - अनुप्रेक्षा; बारह - बारह; वि - पादपूरक शब्द; जिय- हे जीव !; भाविवि - ( भावना) भाकर; एक्कमणेण - एकाग्र मन से; 1. अ अणुवेहा; क, द, ब, स अणुपेहा; ब प्रति में 'बारह' का 'ह' छूटा हुआ है। 2. अ भविव; क भवि भवि द, ब, स भाविवि; 3. अ, इक्कमणेण; क, द, ब, स एक्कमणेण; 4. अ भावहि; क, द, ब, स पावहि; 5. अ जेम; क, द, ब, स जेण । पाहुदोहा : 249

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