Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 262
________________ 'भावार्थ-भट्टारक ज्ञानभूषण कहते हैं-अहो चैतन्यस्वरूप शुद्धात्मा, सूर्य के, चन्द्र के, कल्पवृक्ष के, चिन्तामणि रत्न के, उत्तम कामधेनु के, देवलोक के, विद्वान के तथा वासुदेव के अखण्डित गर्व को चकनाचूर करता हुआ विजयवंत अखण्ड प्रतापवन्त वर्तता हूँ। (तत्त्वज्ञानतरंगिणी, अ. 17, श्लोक 12) यद्यपि लोक में इस ओर से उस छोर तक कर्मों का विचित्र प्रसार है। प्रत्येक चेतन, पुद्गल वस्तु में जो-जो परिणमन लक्षित होता है, वह भावकर्म और द्रव्यकर्म तथा नोकर्म का ही विस्तार है। जहाँ कर्म की महिमा विचित्र है, वहाँ ज्ञान का अतिशय बल भी कम नहीं है। ज्ञान मनुष्यों के लिए क्या-क्या नहीं करता है? वह अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करता है, आत्मा में स्वानुभूति प्रकाश को उद्भूत करता है, परिणामों में शान्ति लाता है, क्रोध का विनाश करता है, धर्म भाव को विस्तारता है और पापों का विनाश करता है। (सुभाषित रत्नसंदोह, 189) इस संसार में जितने भी विधि-विधान हैं, वे सब ज्ञान के बिना कभी भी कल्याणकारी नहीं होते। विवेकपूर्वक करने पर ही वे व्यवहार में हितकारी होते हैं। इसलिये अपने अहित से बचने के इच्छुक और हित के अभिलाषी पुरुष ज्ञान का ही आश्रय लेते हैं। यह ज्ञान रूपी धन ऐसा विलक्षण है कि इसे न तो चोर चुरा सकते हैं और न भाई-बन्धु बाँट सकते हैं तथा मरण के उपरान्त पुत्रादि भी नहीं ले सकते हैं। राजा भी चाहे तो किसी प्रकार छीन नहीं सकता है और दूसरे लोग आँखों द्वारा देख नहीं सकते हैं। तीन लोक में यह ज्ञान पूज्य है। यह ज्ञानधन जिनके पास है, वे ही धन्य हैं। (सुभाषितरत्नसन्दोह, श्लोक 183) हे मूढ प्राणी! इस संसार में तेरे सम्मुख जो कुछ सुख या दुःख है, उन दोनों को ज्ञान रूपी तराजू में चढ़ाकर तौलेगा तो सुख से दुःख ही अनन्त गुना दिखाई पड़ेगा, क्योंकि यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है। (आ. शुभचन्द्र : ज्ञानार्णव, सर्ग 2, श्लोक 260 : पाहुडदोहा

Loading...

Page Navigation
1 ... 260 261 262 263 264