Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 254
________________ बेपंथेहिं ण गम्मइ' बेमुहसूई ण सिज्जए कंथा । विणि' ण हुंति अयाणा इंदियसोक्खं च मोक्खं च ॥ 214॥ शब्दार्थ–बेपंथेहिं—दोनों मार्गों से; ण गम्मइ- नहीं जाया जाता है; बेमुहसुई-दो मुँह वाली सुई (से); ण सिज्जए - नहीं सिलाई की जाती है; कंथा - गुदड़ी, कथरी (की); विण्णि- दोनों; ण हुति - नहीं होते हैं; अयाणा - हे अज्ञानियों ! ; इंदियसोक्खं - इन्द्रिय-सुख; च - और; मोक्खं - मोक्ष; च - पादपूरक । अर्थ - दो रास्तों से (एक साथ) जाना नहीं होता। इसी प्रकार दो मुख बाली सुई से कथरी की सिलाई नहीं होती । हे अज्ञानी ! इन्द्रियों का सुख और मोक्ष दोनों एक साथ नहीं हो सकते। दोनों में से कोई एक ही होगा । 1 भावार्थ-संसार में दो ही मार्ग प्रसिद्ध हैं - लौकिक और पारमार्थिक । लौकिक मार्ग को व्यावहारिक और मोक्षमार्ग को पारमार्थिक कहते हैं । इसका दूसरा नाम आध्यात्मिक भी है। अध्यात्म वीतरागप्रधान है और लौकिक रागभावप्रधान है। संसार का कोई भी काम (चाहे समाज का हो या व्यक्ति का) बिना राग भाव के नहीं हो सकता । घर-गृहस्थी मोह से चलती है। सभी परेशानियाँ राग से होती है । यदि अपने अकेले होने का स्थायी भाव भासित हो जाए, तो फिर अन्य किसी के संग की अभिलाषा क्यों हो ? किन्तु यह जानते हुए भी कि यह अन्य है, पर है, मुझसे भिन्न है, किन्तु उसमें अपनेपन की एकत्व बुद्धि होने से उसे पर में और अपने में भिन्नता भासित नहीं होती। भ्रम से या अज्ञान से हम किसी को भी कुछ समझ लें, किन्तु हमारे समझने से वह वस्तु वैसी नहीं हो जाती है । जो वस्तु जैसी है, वैसी की वैसी रहती है। 1 लोक में न्याय-मार्ग चलता है। घर-गृहस्थी में रहने वाला यदि घर को अपना न समझे, पत्नी, बाल-बच्चों से राग न करे, तो गृहस्थी का चलना कठिन हो जाएगा। संसार में मोह, राग की प्रधानता होती है, किन्तु मोक्ष मार्ग में वीतराग भाव की मुख्यता होती है । आजकल लोगों ने भगवान् को प्रसन्न करने का प्रसाद पाने का एक तीसरा ही मार्ग (गली) निकाल लिया है जो वास्तवकि नहीं है । यदि ईश्वर ही सबकी एजेन्सी बन जाए, तो दुनिया में फिर बड़े-बड़े उद्योग, कारखाने चलाने की क्या आवश्यकता रह जाएगी ? लेकिन मनुष्य श्रम इसलिए करता है कि उसके बिना 1. अ गम्मई; क, द, ब, स गम्मइ; 2. अ बिण्हइ; क वेविन्नि; द, स विण्णि; ब बेण्णि; 3. अ अयाणया; क, द, स अयाणा; ब अयाणइं । 252 : पाहु

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