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रहा है, किन्तु चेतन और जड़ कर्म कभी भी दोनों मिलकर एक नहीं हुए। चेतन कभी जड़ रूप में नहीं बदल सकता और न जड़कर्म कभी चेतन हो सकते हैं। दोनों की स्वतन्त्र सत्ता है। हमने आज तक ज्ञानस्वभावी वस्तु को, उसकी सत्ता से नहीं पहचाना है। इसलिए बाहर की शारीरिक तथा भोजन-पान आदि की क्रियाओं से धर्म मानते आये हैं। ऐसा लगता है कि हमारी समझ का धर्म खाने-पीने-बनाने आदि में ही सिमट गया है। जो चेतन आत्मा लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है और जिसमें सदा काल पाया जाने वाला ज्ञान सर्वलोकव्यापक है, वह कर्मकाण्डमूलक कुछ क्रियाओं में सिमटकर रह गया है। कहीं हम यह मानकर तो नहीं बैठ गये हैं कि धर्म केवल मन्दिर जाने में ही है। मन्दिर धर्मस्थानक है; लेकिन यह तभी सम्भव है जब वहाँ स्थिर चित्त होकर आत्मा-परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करें, स्वाध्याय तथा आत्मध्यान करें। यह बराबर अनुभव में आता है कि आत्मा का परिणमन स्वतन्त्र है और शरीर का परिणमन स्वतन्त्र है। आत्मा का परिणमन शरीर के अधीन नहीं है और न शरीर का परिणमन आत्मा के अधीन है। लेकिन यह समझ नहीं होने से हम रात-दिन शरीर की चिन्ता करते हैं, लेकिन आत्मा-परमात्मा के विषय में कोई विचार नहीं करते।
वास्तव में चिन्ता अन्य (पर) की होती है और चिन्तन निज आत्मस्वभाव का। चिन्ता कर्म को लाने वाली है, आस्रव-बन्ध की हेतु है, लेकिन चिन्तन-ध्यान कर्म को रोकने वाला है। जब तक यह स्थिति नहीं बनती है, तब तक संसार (जन्म, मरण) का द्वार खुला है, हर समय कर्म बँध रहा है। जब तक इस कर्म से छूटेंगे नहीं, तब तक सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः यह कहना ठीक है कि हम आज तक धर्म करते रहे और परेशानी-दुःख भोगते रहे, तो यह वैसा ही हुआ जैसा कि धान के छिलके को कूटते रहने से होता है। जिन धान के छिलकों में चावल के दाने नहीं हैं, वह चावल कैसे प्राप्त हो सकता है? इसी प्रकार अन्तर में धर्म न हो, तो बाहर की क्रियाओं से सुखी कैसे हो सकते हैं?
देहादेवलि सिंउ वसइ तुहु देवलई णिएहि । हासउ महु मणि अत्थि इहु सिद्धे भिक्ख भमेहि ॥187॥ · · शब्दार्थ-देहादेवलि-देह रूपी देवालय में; सिउ-शिवं (परमात्मा); वसइ-बसता है; तुहु-तुम; देवलइं-देवालय में णिएहि-खोजते हो
1. अ देहादेउलि; क, द, ब, स देहादेवलि; 2. अ तुह; क, द, स तुहुँ; ब तुहु; 3. अ देवलइ; क, द, ब, स देवलई 4. अणिएहिं; क, द, स णिएहि व नएहि; 5. अ इत्थ; क, द, ब, स अत्यि; 6. अ भमेहिं; क, द, ब, स भमेहि।
पाहुडदोहा : 219